Chetnaa
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| Friday, September 21, 2007 - 8:50 am: |
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वा! आज बसुन बर्याच कविता, चारोळ्या वाचुन काढल्या... काय मस्त लिहिता तुम्ही लोक्स...
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R_joshi
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| Monday, September 24, 2007 - 11:31 am: |
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बहर मनाचें ओसरले न सापडे किरण नवचेतनेचे स्वत: जळावे म्हटले मजजवळ न धैर्य ते ज्योतीचे अहोरात्र जागुन काढली मजजवळ न स्वप्न तव मिलनाचे काजव्यापरी मी लुप्त जाहले मजजवळ न धैर्य जगण्याचे प्रिति
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Itgirl
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| Monday, September 24, 2007 - 12:35 pm: |
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तुझ्या नि माझ्या वाटा, एकमेकींशी नेहमीच समांतर एकत्रच चालतात खर तर, पण मिटत नाही अंतर
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Krishnag
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| Wednesday, October 03, 2007 - 5:13 am: |
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समांतर वाटांचं एक चांगलं असतं एकमेकांना छेदायचं भय तरी नसतं
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Itgirl
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| Wednesday, October 03, 2007 - 2:19 pm: |
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सुख अल्याड, दु:ख पल्याड मधे जीव घुटमळतो शाश्वताचा किनारा अस्पष्टसा खुणावतो...
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Chetnaa
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| Thursday, October 04, 2007 - 6:23 am: |
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किशोर, आयटी... छान आहेत चारोळ्या.. मस्तच..
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Rajya
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| Thursday, October 04, 2007 - 6:35 am: |
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कृ, आयटी छान असो सुख वा दु:ख जीव बिचारा घुटमळतो शाश्वत दुखवतो म्हणुन मी अशाश्वतात रमतो
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Chetnaa
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| Thursday, October 04, 2007 - 6:42 am: |
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राज्या, क्या बात है? सही...
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Athak
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| Thursday, October 04, 2007 - 6:43 am: |
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अरे वा इकडचा खजिना नजरेतुन सुटला होता छानच लिहीता सगळे प्रतिभावान किती छान प्रसवता तुम्ही लोक या कवितांना झुळकेंना
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Ana_meera
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| Thursday, October 04, 2007 - 6:46 am: |
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सरस हं राज्या... लिहित रहा(सुटा?)
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Chinnu
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| Thursday, October 04, 2007 - 11:19 pm: |
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अरे वा इकडचा खजिना नजरेतून सुटला होता छानच लिहीता सगळे प्रतिभावान || किती छान प्रसवता तुम्ही लोक या कवितांना झुळुकेंना || (वरच्या 'अथक' झुळुकेवर आधारित! सर्व हक्क अथकाधीन )
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Itgirl
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| Friday, October 05, 2007 - 5:58 am: |
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अथक, चिनू आयुष्याची अनवट धून सुरेल कधी अन कधी बेसूर सप्तस्वरांचे हिंदोळे अन पडते जीवा प्राणांतिक भूल
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Shyamli
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| Friday, October 05, 2007 - 9:30 am: |
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शैलजा मस्तय ही चारोळी, आवडली लिहीत रहा
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आयटे, सुंदर... तुझ्यातला हा गुण लपवुन का ठेवलास गो??? राज्या खरच लिहित रहा.. आयुष्याच्या अनवट धुनेला सप्तस्वरांची साथ द्यायची आपल्या अर्थहीन जगण्याला अशा प्रकारे नवी वाट द्यायची.. रुप... माणिक, प्रिति, जगु, मेघा सगळे कुठे आहात लवकर या...
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Mankya
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| Friday, October 05, 2007 - 9:46 am: |
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प्रश्नांची उत्तरंच जेंव्हा वळतात प्रश्नांकडे तेंव्हा उत्तरापासून आपण नेहमी दूर पळतो तरी सगळं काही जागच्या जागीच राहते फक्त आपण स्वतःला स्वतःपासून दूर करतो ! माणिक !
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Giriraj
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| Friday, October 05, 2007 - 10:31 am: |
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बांधून घे ही कुंतले मानेच्या जऽऽरा खाली दे मानेला उगाच हिसका थबकेल झुळूकही आली गेली giriiraaj
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Kkaliikaa
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| Friday, October 05, 2007 - 7:13 pm: |
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मलाही बरसायचंय अगदी तुझ्यासरखं भरुन आलाय ऊर मलाही पाझरायचंय अगदी तुझ्यासारखंच!
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आयटे, छान. रुप्स, पुन्हा वळलीस तर ईथे!
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R_joshi
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| Saturday, October 06, 2007 - 6:11 am: |
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अरे वा!!! झुळुकेचा खजिना भरु (बहरु) दे असाच छान लिहिताय सगळेजण
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प्रश्नांची उत्तरे प्रश्नांकडेच वळणार त्यांच्याशिवाय ते तरी कुणाकडे जाणार? उत्तरांमुळेच प्रश्न आणि प्रश्नांमुळेच उत्तर वळणाचं पाणी शेवटी वळणावरच जाणार... रुप
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