Kkaliikaa
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| Thursday, August 16, 2007 - 3:33 am: |
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वार्याची हलकेच एक झुळूक यावी आणि स्पर्शुन ज़ावी मनालाही तसाच आलास बघ "मधुगारवा"बनुन माझ्या नकळतही...........
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Zaad
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| Thursday, August 16, 2007 - 7:32 am: |
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नकळतेपणीही तुला सारे कळते जसे तंद्रीतही पाऊल तुझ्याकडे वळते...
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Vel
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| Thursday, August 16, 2007 - 7:55 am: |
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कळते पणाची व्यथा जरी रात्रं दिन छळते तरी का हे वेडे मन तुझ्याचसाठी चळते?
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Manogat
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| Thursday, August 16, 2007 - 9:17 am: |
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अशी रीति जाहली मी अंतरी तुला वगळुनी ओळख माझीही मला पटेना तुजविना मी अपुरी
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Mankya
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| Friday, August 24, 2007 - 9:11 am: |
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असे अव्यक्त शब्द काही मुक ओठांवर रेंगाळणारे नसे फक्त अस्पष्ट वेसही हे पाऊलही हेंदकाळणारे ! माणिक !
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Mankya
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| Friday, August 24, 2007 - 9:31 am: |
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तूजला पाहूनी चांदव्याने झूरावे अन निरखता नभी स्तब्ध व्हावे प्राजक्तमनी नाजूक शल्य उरावे मोगर्यानेही गंध अलवार लुटावे ! माणिक !
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Kinara
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| Friday, August 24, 2007 - 1:37 pm: |
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प्रेमा चे चार क्षण मनाला भूलऊन जातात, आणि मग सतत, आठ्वणिन्चि वलये, वस्त्व्याला हलऊन जतात.
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Shyamli
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| Friday, August 24, 2007 - 1:43 pm: |
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आधि कलीका मग झाड मग वेल मग माणिक मग किनारा मज्जाचे दिवे घ्या जनहो अगदीच फाको आहे पण राहवलं नाही बाकि छान चाललय....
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Giriraj
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| Saturday, August 25, 2007 - 6:42 am: |
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मला वाटले तू चारोळी टाकलीस की काय!
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Rajya
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| Saturday, August 25, 2007 - 9:23 am: |
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माणिक, बढीया किनारा थोडं शेद्धलेखनाकडे लक्ष द्या, अजुन परीणामकारक होईल. वास्तव्य असे माझे र्हदयी तुझ्याच आहे ज्योतीमुळे जसे त्या पणतीत प्राण आहे
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आता पुरे झाले बहाणे की संगतीला साज नाही जाणीवही आहे तुलाही मांड अपुला बाज नाही
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Shyamli
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| Monday, August 27, 2007 - 8:40 am: |
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एक एक शब्द माझा आज माझ्याशी भांडला कसे कळेना यालाही किती जीव हा कोंडला गिर्या आहेस का रे ............अजुन कोणी आहे का ????
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Shyamli
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| Monday, August 27, 2007 - 8:52 am: |
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काही लिहावे म्हणून होई लेखणी आतूर हाय हाय अश्या् क्षणी शब्द शब्द की फितूर
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Mankya
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| Monday, August 27, 2007 - 9:32 am: |
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ओठास स्पर्शव्याकूळ शब्दांच्या मनी पान्हावणार्या अर्थांचा कल्लोळ किती मनात भावनांची वाढती चढाओढ ही समोरी शब्दांची अबोल ओंजळ रिती ! माणिक !
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R_joshi
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| Monday, August 27, 2007 - 9:32 am: |
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जनहो अशिच बहार येऊ देत झुळुकेला
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R_joshi
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| Monday, August 27, 2007 - 9:36 am: |
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रित्या ओंजळीत माझ्या शब्दसुमने तुझी असु देत अबोल शब्द भावनांचे असेच वर्षत राहु देत प्रिति
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R_joshi
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| Monday, August 27, 2007 - 9:39 am: |
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मनी तुझी प्रतिमा मग शब्द गोठतील कसे धरणी व्याकुळ मेघांसाठी श्रावणमासी बरसतील ते प्रिति
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Manogat
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| Tuesday, August 28, 2007 - 10:02 am: |
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दुरावा अता नकोसा होतो जग या परिकल्पनेची जाणिव झाल्यावर घरात कीती सुरक्षित होत हे पाखरु आज जाणवतय दुर आल्यावर
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Manogat
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| Tuesday, August 28, 2007 - 10:04 am: |
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नकळत पणे होतात अता मला भास तु जवळी आहेस याच होतो आभास
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Gobu
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| Tuesday, August 28, 2007 - 4:08 pm: |
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मित्रहो, ब्र्याच दिवसानी आलो इथे, ही झुळुक मात्र दिवसेदिवस बहरत चाललीय राजा, प्रीती, सही है बॉस! माणिक, मोगर्यानेही गंध अलवार लुटावे ! कुठुन आणतोस रे हे शब्द, आजकाल हे मराठी शोधुन सापडत नाहीय रे! झाड, सही! श्यामली, एक एक शब्द, हृदयाला माझ्या भिडला!
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