Rajya
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| Thursday, June 28, 2007 - 9:18 am: |
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आज फार दिवसांनी आलो. प्रिती, लोपा, देवा, अभि, मनोगत, श्यामली, गिरी, संघमित्रा, आफताब सगळे छान बरसताय एक थेंब तळ्यात पडला आणि आपलं अस्तित्व गमावुन बसला एक थेंब गुलाबपुष्पावर पडला चंदेरी चमक पाहुन खुदकन हसला
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Princess
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| Friday, June 29, 2007 - 10:52 am: |
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जमेल का कधी मला अळवाच्या पानासारखे जगायला, अंगभर भिजुनही... झटकताक्षणी, कोरडे कोरडे व्हायला...
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Princess
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| Friday, June 29, 2007 - 11:04 am: |
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मनाचे धागे असे कसे गुंतले सोडवु म्हटले तर तटतट तुटले...
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Rajya
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| Friday, June 29, 2007 - 12:07 pm: |
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हाय प्रिन्सेस, मनाचे बंध कधी गुंतवु नयेत एकदा गुंतले, तर कधी सोडवु नयेत
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Rajya
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| Friday, June 29, 2007 - 12:09 pm: |
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अशाश्वत प्रेमाला मिलनाची जोड हवी आसक्तीच्या सक्तीला मुक्तीची ओढ हवी
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अळवाच्या पानाचे एकदम विचित्रच वागणे अंगभर भिजुनसुद्धा विरक्तच त्याचे जगणे रुप...
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निरोप घेताना मी तुझा भावनांचा कल्लोळ होतो शब्द वेडे रडत बसतात स्वर मात्र अबोल होतो
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सगळ्यांनी नेहमी प्रमाणे मस्त लिहलय.. मला वाचून काढायचे आहे.मग प्रतिक्रिया देते.
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Shyamli
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| Wednesday, July 04, 2007 - 5:23 am: |
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अग मृ वाच नंतर आधि लिहि बाई काहितरी जाम ढेपाळलीये झुळुक सध्या आणि हो अभिनंदन ग 
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Jo_s
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| Wednesday, July 04, 2007 - 7:01 am: |
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अशी कशी ढेपाळली झुळुक आता ग बाई पाऊस, गारव्यात केली साऱ्यांनी का गाई गाई
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Shyamli
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| Wednesday, July 04, 2007 - 7:36 am: |
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धुळभरल्या वाटा त्याच दाखलेही तेच तेच न कळे मलाही काही शब्दासही तोच पेच
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R_joshi
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| Wednesday, July 04, 2007 - 7:51 am: |
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रुपाली,राजा,मृ सहिच श्यामली झुळुकेची सद्यस्थिती वर्णिलिस. जो
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R_joshi
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| Wednesday, July 04, 2007 - 7:59 am: |
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गोठलेले शब्दहि बरसणार श्रावणमासी सरीवर सरी बरसुन ही शब्द असणार अनोळखि प्रिति
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Shyamli
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| Wednesday, July 04, 2007 - 12:15 pm: |
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क्षणी भेटते तुला मी क्षणी वाटते हा भास सांग तुझ्या माझ्या मधे कोणता हा दुवा खास
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Shyamli
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| Wednesday, July 04, 2007 - 12:23 pm: |
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जसा काल ओलांडला तसा आजही संपेल नाही उद्याची प्रतीक्षा तोही येइलं जाईलं
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भग्न स्वप्न बेचिराख मन आशेचा पूलही उध्वस्त झालेला.. हृदय विझून गेले डोळे वाहून गेले पाऊस मात्र आहेच काठोकाठ भरलेला..
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R_joshi
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| Thursday, July 05, 2007 - 10:02 am: |
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मृ... जवाब नही आपका श्यामली उद्धवस्त मनाचे मनोरे एकावर एक रचत आहे आभाळ जिंकल तरिही मी एकटिच आहे प्रिति
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R_joshi
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| Thursday, July 05, 2007 - 10:08 am: |
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ओथंबलेल्या आभाळाला झुळुकेचा स्पर्श हवा कोसळणा-या शब्दांना निर्झराचा आसरा हवा प्रिति
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प्रिती उध्वस्त मनाचे मनोरे.. आभाळ जिंकले तरिही एकटि.. खूप गहन अर्थ आहे.. खूप छान..
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Mankya
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| Friday, July 06, 2007 - 6:52 am: |
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सगळेच छान लिहितायेत ! असे ध्वस्त उध्वस्त मन्ममनाचे मनोरे तरी कसे समोरी भावनांचे पान कोरे वर सावरणार्यांचे मारेकर्यांनाच दुजोरे विखरून पून्हा पून्हा ' सावरणेच ' नको रे ! माणिक !
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