Bee
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| Tuesday, June 12, 2007 - 8:29 am: |
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पान्हा काठोकाठ.. अशक्य अज्जुका! राज्या, अप्रतीम.. चुलीवर रांधते भाकरी माथी वास्तवाचे चटके कसे शमवू माझे मलाच उरात ठिणगी पेटते..
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Jayavi
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| Tuesday, June 12, 2007 - 8:34 am: |
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पान्हा काठोकाठ..... आह .. !! मध्यरात्री समुद्राकाठी, लाट झेपावली कोणासाठी? .......तुझ्याच साठी रे तुझ्याच साठी मस्तच!!
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ते कसे होते अघोरी कायदे भेटावयाचे. ओढ लागे मीलनाची पण पहारे संशयाचे.
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R_joshi
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| Tuesday, June 12, 2007 - 8:57 am: |
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अज्जुका,राजा,वैभव, देवा, संघमित्रा अप्रतिम माझा एक अतिक्षीण प्रयत्न रात्र हि अंधारली काजळवात तेवते आठवांच्या वातीसाठी दिव्यासम मी जागते प्रिति
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Jo_s
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| Tuesday, June 12, 2007 - 9:38 am: |
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भिऊन विवंचनांना दूर पळालो कितीही मनही होते की सोबत घेऊन ती भितीही
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R_joshi
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| Tuesday, June 12, 2007 - 9:52 am: |
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मन माझे माझ्यासोबत कशापासुन पळते मी मनी वसली भीति जी त्याच्यासंगे जगते मी प्रिति जो तुझाच अर्थ या शब्दात कसा वाटतो
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Mankya
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| Tuesday, June 12, 2007 - 9:52 am: |
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अज्जुका .. पान्हा जबरदस्त ! Rajya.. Great यार ! वैभवा .. आज तर जोरदार बरसलास रे ! माणिक !
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Ajjuka
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| Tuesday, June 12, 2007 - 10:31 am: |
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चंद्राचा पहारा आभाळाचे कायदे हंस उडू पाही अवघड इरादे
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Mankya
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| Tuesday, June 12, 2007 - 10:55 am: |
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कामही नेमकं आजचं यायचं होत, आस्वादही घेता आला नाही नीट ईतक्या छान जुगलबंदिचा ! आपापल्या सीमा आपापले कायदे तरी पळवाटांचे आपापले फायदे ! माणिक !
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एकदा एका हंसाने पंख पसरले आपले. अन् कुणीतरी नकळत त्याचे आभाळच कापले.
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Jo_s
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| Tuesday, June 12, 2007 - 11:17 am: |
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अज्जुका, माणीक छान. प्रिती ही रचनापण छान आहे, पण त्यातल भितीसोबत जगणं हा पळून जाण्यापेक्षा वेगळा भाव दिसतोय.
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Jayavi
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| Tuesday, June 12, 2007 - 11:17 am: |
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वा वा.... लगे रहो...!!
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Mankya
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| Tuesday, June 12, 2007 - 11:39 am: |
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काय केलेस नजरेला की बिंब भाळले प्रतिबिंबावर हाकेची वाट होकाराला अधीर सलज्ज अधरावर ! माणिक !
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Ajjuka
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| Tuesday, June 12, 2007 - 11:47 am: |
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उफ!!! सन्मे!! जियो!! कापलेलं आभाळ भुईवर पडलं नदीच्या तीराला गाणं होऊन रूजलं
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Rajya
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| Tuesday, June 12, 2007 - 12:04 pm: |
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बी, जयावी, प्रिती, माणक्या धन्यवाद. ईकडे एव्हडा धुमाकुळ चाललाय याची कल्पनाच नाही. माणक्या, होकार मस्तच. संघमित्रा, अशक्य!! बी, प्रिती, लगे रहो
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जगेल का रुजलेले गाणे? शुष्क नदीचा काठ. वाकून बघता पाण्यामध्ये, प्रतिबिंबही फिरवी पाठ.
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Rajya
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| Tuesday, June 12, 2007 - 12:21 pm: |
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कापलेल्या आभाळाची सरीतेला नाही तमा ती निघाली बेधुंद भेटण्या त्या जिवलगा
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वठलीत का हो सगळीच गाणी? फसवेच बिंब नि फसवेच पाणी
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Rajya
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| Tuesday, June 12, 2007 - 12:28 pm: |
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संघमित्रा लाटांच्या बेधुंद तालात रुजलेलं गीत जगलं तुझ्या माझ्या प्रीत अंबरात नक्षत्र होऊन विसावलं
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राज्या छान आहे पण यमक नाही जुळत आहे. मराठी कवितांमधे (मुक्तछंद सोडून) यमक जुळणं महत्वाचं असतं आणि वाचायलाही ते छान वाटतं ना. (हे फार दिवसांपासून इथं लिहायचं मनात होतं.) एक छोटासा बदल सुचवू का? जिवलगाच्या ऐवजी प्रियतमा केलं तर?
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