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Astitva
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| Thursday, April 19, 2007 - 5:58 am: |
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तुझा प्रत्येक शब्द ताल जसा सोळा मात्रांचा त्रिताल तुझा प्रत्येक भाव कायदा दुप्पटीत वाजला.... हरवून टाकायला.... तुझ प्रत्येक पाऊल, चाटीवर केलेला आघात ता-ता-ता-ता- मैदानच विसरून टाकायला ...........?............... तुझा गंध, तू केलेली थुमरी! माझ्या साटी माझी लग्गी! तुझ समेवर सुरू केलेलं बोलणं कालाला भानचं नसतं समेवर येऊनचं संपत असं तुझ वागंण तुड्यासारख़ं..... साहिल.....
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Jagu
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| Thursday, April 19, 2007 - 7:27 am: |
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रोहीत तुझी चारोळी आणि कविता दोन्ही छान आहेत.
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Bee
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| Thursday, April 19, 2007 - 7:36 am: |
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जगु, तुला रोहीत कुठे दिसलाय इथे
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Jagu
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| Thursday, April 19, 2007 - 7:57 am: |
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बी, अस्तित्व च्या प्रोफ़ाइल मध्ये रोहीत आहे. अस्तित्व हाच रोहीत आहे.
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Bee
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| Thursday, April 19, 2007 - 9:54 am: |
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पण मग साहील ही कवितेची शेवटची ओळ आहे की त्याचे आणखी एक नाव आहे..
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Astitva
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| Thursday, April 19, 2007 - 11:30 am: |
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धन्यवाद जगू..... बी अरे साहिल हे मी ऊर्फ़ रोहित साटी, कवितेच्या वेळी वापरतो. असो..... दोघांनी काळ्जी घ्या.
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Astitva
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| Thursday, April 19, 2007 - 11:31 am: |
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आणि हो संर्पकात रहा....
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Jagu
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| Thursday, April 19, 2007 - 11:40 am: |
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बर झाल रोहीत तुच हे कोड सोडवलस. तु पण काळजी घे.
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Astitva
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| Thursday, April 19, 2007 - 6:15 am: |
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जगण्याचा माझा मुड नाही आयुष्यात माझा गुध नाही! प्रश्नांस ऊत्तरे नाही नियतीची जोड नाही! माणसांची ख़ोड आहे राजकारणांची फ़ोड आहे! रात्रीस माझ्या स्वप्न नाही पहाटेस माझ्या गोड नाही! रिते आयुष्याची मोड आहे रिते मनाची रोड आहे! नियतीस प्रश्न आहे ऊत्तरांचे गाईड(हवे)आहे! परीक्षांचा संच ऊपलब्ध आहे सोडवावा कसा हा आहे! साहिल.....
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Bee
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| Friday, April 20, 2007 - 4:06 am: |
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निनावी, अद्वैत खूप आवडली..
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Jagu
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| Friday, April 20, 2007 - 6:27 am: |
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आजकाल मला उदास राहणं आवडायला लागलय एकांतात शांत बसुन राहण जमायला लागलय कारण मन हे वेड आनंदात सर्वांसोबत छान रमतय पण दु:खात फक्त तुझीच साथ देतय.
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Desh_ks
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| Saturday, April 21, 2007 - 7:30 pm: |
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अनुराग सगेसोयरे परतुन गेले चितेस लावुन आग माझ्यासह ही जळती काष्ठे, हा कुठला अनुराग? टाकुनि सुखदु:खाचे ओझे मी शांत झोपलो येथे वसंत वर्षा विसरुन गेली शुष्क जाहली काष्ठे धडधडून पेटून उठे मग हा कुठला आवेग? माझ्यासह ही जळती काष्ठे... जनामनातिल जगणे माझे विजनातिल हे वृक्ष आजीवन ना कधी जाहली परस्परांशी साक्ष अखेरचा हा दाह भोगण्या कसा लाभला संग? माझ्यासह ही जळती काष्ठे, हा कुठला अनुराग? -सतीश
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Pulasti
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| Saturday, April 21, 2007 - 10:34 pm: |
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वा! सतीश - अनुराग मस्तच. अगदी साधं सरळ भिडणारं काव्य! -- पुलस्ति
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Pulasti
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| Saturday, April 21, 2007 - 11:25 pm: |
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"किंमत" विस्मय होतो.. कधी काळी मडक्यातल्या बोटभर कुल्फ़ीने ज्यांची चंगळ व्हायची, आता त्यांना बादली-बादलीभर ice-cream ढोसूनही फ़ारशी मजा येत नाही. कधी काळी ज्यांच्या डोळ्यातून अश्रूंचा पूर लोटे - एवढ्या-तेवढ्या कारणावरून, आता त्यांच्या निर्ढावलेल्या डोळ्यांच्या शुष्क कडा पाणावतात क्वचित - एखाद्या बेसावध क्षणीच! कधी काळी ज्यांचे शब्द उतरायचे कागदांवर अलगद - श्वासांसारखे, शब्दांना उत्तेजकं दिल्याशिवाय त्यांच्याही कल्पनेची घोडी आता नाचत नाहीत. विस्मय होतो.. त्या त्या वेळी ते ते सर्व असतं, ज्या ज्या वेळी ज्याची ज्याची किंमत जाणीवेतून झालेली असते हद्दपार. -- पुलस्ति
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सतीश, "अनुराग " Excellent! गणेश (समीप)
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"ज्या ज्या वेळी ज्याची ज्याची किंमत जाणीवेतून झालेली असते हद्दपार" वा पुलस्ति!!! अप्रतिम. शब्दांना उत्तेजकं...भलतीच चपराक रे!! excellent आवडली कविता.
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Astitva
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| Monday, April 23, 2007 - 5:24 am: |
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हाय जगू कशी आहेस. सध्या काय करतेस.
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Meenu
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| Monday, April 23, 2007 - 5:30 am: |
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अनुराग छान जमलीये ..
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Meenu
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| Monday, April 23, 2007 - 5:39 am: |
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भ्रम पुन्हा एकदा प्रबळ इच्छा, मरण्याची .. उफाळून येणारा विचार, आत्महत्येचा .. अचानक लक्षात आलं, भ्रमच होता हाही, जिवंत असण्याचा .. मरण तर केव्हाच येऊन गेलय .. त्याच दिवशी, ज्या दिवशी, स्वाभिमान आणि स्वत्व गमावलं, त्याच दिवशी अखेरचा निरोप घेतला होता, मी माझा ..
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