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Pama
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| Wednesday, December 07, 2005 - 10:51 am: |
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काय लिहायच आता इथे? ... निनावी, काल जेवलेच नव्हते गं!! वैभव.. माझ निनावीला ditto .. अस इथे बोलून का जळवता आम्हाला.. काय ते secret मधे बोला मेलामेलीत.
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पमा ... कविता मस्त आहे कालची कालच feedback द्यायचा होता पण राहून गेलं... आळशीपणा..
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Ninavi
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| Wednesday, December 07, 2005 - 10:58 am: |
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अरे, गिरीची कविता वाचलीच नाही! wow!!! आता आम्हाला लिहायचा धीरच नाही होणार!
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Pama
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| Wednesday, December 07, 2005 - 11:06 am: |
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वैभव.. तू तुझी वेगळी कारण शोध, माझ कारण ढापायच नाही.. 
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Devdattag
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| Wednesday, December 07, 2005 - 11:57 am: |
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माझ्या मनातला भाव असे पावसाचा गाव कधि करि ओलेचिम्ब कधि अळवावरचा ठाव माझ्या मनातला भाव जसा नियतिचा खेळाव कधि रन्गे सरिपाट कधि मोडलेला डाव माझ्या मनातला भाव कुणा माऊलिचा प्रभाव कधि ओघळलेले अश्रु त्यावर तरलेलि नाव
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Mmkarpe
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| Wednesday, December 07, 2005 - 12:42 pm: |
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चिन्नु, सारंग, वैभव धन्यवाद.... गिरिराज, वैभव, सारग, देवदत्त...... असेच तुमच्या काव्याने मायबोलीला उन्मुक्त बहरुद्या.......
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Yog
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| Wednesday, December 07, 2005 - 3:50 pm: |
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गृहप्रवेश तिन्ही सान्जा कडेवर घेवून धाप घेणारी एखादी गर्द निळी उतरण माझ्या फ़ुटक्या कौलाखाली दोन घटीका थांबते, तेव्हाच सुरू होतो एक सोहळा.. चन्द्रकोरी वर्हाडींची ती पारावर सळसळ झुळुकेच्या गुणगुणाष्टकावर परागकणी अक्षत उधळण स्वागत दरबारी झुकलेले माडपुरूष काजवी करवल्यांची ओवाळणिची झुंबड क्षितीज सिमान्चा भरजरी अन्तर्पाट अन एकमेकीस बिलगलेल्या कुटुम्बवत्सल कौलफ़ट्या.. दूर डोंगर माथ्यावरून तो सोहळा पाहताना नवग्रहांचे सात फ़ेरे भोवती घुमू लागतात पण तुझ्या येण्याचा मुहूर्त आजही टळतो अन डोळ्यापुढे तांबडे माप पुन्हा एकदा उलटते... गृहप्रवेशाचा तोच एक सन्केत बाकी सब हिन्दोळे!
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Pama
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| Wednesday, December 07, 2005 - 4:21 pm: |
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योग, तुम जियो, तुमको चाहिये उतने साल और दिन मे एसी कविता लिखो पचास हजार!! तुला सगळी मंगल कार्यालये बक्षिस
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Chinnu
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| Wednesday, December 07, 2005 - 6:31 pm: |
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योग.. सही., झुकलेले माडपुरुष!!
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Ninavi
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| Wednesday, December 07, 2005 - 7:41 pm: |
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wow ! योग, 'तांबडे माप'... अप्रतिम रे!!
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Paragkan
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| Wednesday, December 07, 2005 - 8:05 pm: |
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toooo goood re !!!!!
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Ajjuka
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| Wednesday, December 07, 2005 - 10:14 pm: |
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प्रसाद मोकाशी.. शोध मस्त पमा खास गिरी.. क्या बात है बच्चे!! पिक्या.. ओके रे बाकी सगळेच चांगलं लिहितायत
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Sarang23
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| Wednesday, December 07, 2005 - 10:33 pm: |
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देवदत्त छान. योग सही रे.
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yaÜgaÊ XabdaMcaI ]QaLNa sauroK ro
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Bee
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| Wednesday, December 07, 2005 - 11:47 pm: |
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योग, देवदत्त, सुरेख कविता आहे. पराग काय रे नुसती वरवर आहे कविता... प्रसाद, कविता खूप लांबली
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Giriraj
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| Thursday, December 08, 2005 - 12:23 am: |
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गुणगुणाष्टक... योग फ़ुल्टू फ़िदा यार! तंबडे माप... सहीच! वाट पहाण्यलाही सुंदर करून टाकलस! पिक्याची कविता तुला बक्षीस! पिक्या,आता भौतिकरुपात याला ही कविता देऊण टक!मस्त रे पराग!
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Dhruv1
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| Thursday, December 08, 2005 - 12:40 am: |
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maÝnaacyaa iknaaáyaavar tulaa saÜDayacaÜ tovhacaI tu AbaÜla AMtmau-K caohoáyaavar hlaNaaáyaa saavalyaaMtuna saLsaLNaaáyaa AMtbaa-( naadNaaáyaa XabdaMcaI maÝnaacyaa iknaaáyaavar tulaa saÜDayacaÜ tovhacaI tu ivar> Anaasa> maaJyaahI maÜhpaXaatuna dur vaaáyaavar ÔDÔDNaarI tlamavasa`a ivarGaLuna ixatIjaat saamaavaNaarI }lagaDt punha svakÜXaat jaaNaarI tu AXaI Asatosa tovha svatÁtca hrvalaolaI mhNauna maaJao Aavaoga AavaÉÆ kI punha tuJyaa XabdvaolhaL vaoLocaI vaaT pahuÆ
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Devdattag
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| Thursday, December 08, 2005 - 1:19 am: |
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रुसवा ना होना उनके ना आनेसे देवदत्त शम्मा कल फिर जलेगि योग.. सुरेख स्वभावान्योक्ती ध्रुव.. अबोला सुन्दर
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Devdattag
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| Thursday, December 08, 2005 - 1:26 am: |
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aayalaa.. alankaar chukalo kay?
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Sarang23
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| Thursday, December 08, 2005 - 1:49 am: |
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छान रे ध्रुव. देवदत्त खरच चुकलास.
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Sarang23
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| Thursday, December 08, 2005 - 5:25 am: |
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निर्झर दोन पापण्या ओल्या आणिक बहुत साचले मोती कोर सांगती नयनांच्या जी विझते ती असते ज्योती पाषाण भावना झाल्या अन दगडाला फुटला पाझर दोन ऊरावर घाव कोरूनी हसतो इथला निर्झर खोल गाव वेदनेचा तिथला ठाव कधी ना ठावे कळती वळणे रस्त्यांची जेंव्हा त्यांच्या गावा जावे जीवन-नुसता घाम गळावा आयुष्याचा गाळ काढता सुख-दुःखाच्या आठवांत त्या सागरात निर्झर पडता सारंग
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Yog
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| Thursday, December 08, 2005 - 11:42 am: |
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मंडळी धन्यवाद Dhruv1, शेवटचे कडवे अगदीच out of place वाटते.. नक्की काय सांगायचे आहे ते अस्पष्ट होते.. c.b.d.g.
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Mmkarpe
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| Thursday, December 08, 2005 - 12:26 pm: |
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स्वप्न...... स्वप्न सारेच पाहतात मीही पाहतो ऊघड्या डोळ्यांनी... स्वप्न ऊद्याची उज्ज्वल भविष्याची नव्या युगाची स्वप्न एकात्मतेची सामाजिक समतेची विश्वबंधुत्वाची स्वप्न काळरात्रीच्या उदरात दडलेल्या नव्या पहाटेची स्वप्न काळोखाला छेदुन जाणार्या प्रकाशकिरणांची स्वप्न विज्ञानाची सहकाराची सहजिवनाची स्वप्न तुटतात वेदना होतात डोळे ओलावतात आशेचा किरण हळुच डोकावतो आशा पालवतात स्वप्न जागतात सामोरे येतात ऊघड्या डोळ्यांनी... स्वप्नांची मालिका तुटते- जुडते चालतच राहते स्वप्न ग्वाही जागेपणाची जाग्या संवेदनांची स्वप्न जननी नव्या ध्येयांची नव्या शोधांची स्वप्न आधार आयुष्यात हरलेल्यांना उमेद जगण्याची बेरंग वास्तवाला स्विकारण्यासाठी ही झालर रंगीत स्वप्नांची
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Mmkarpe
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| Thursday, December 08, 2005 - 12:31 pm: |
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सारंग खुपच छान कविता....
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Ninavi
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| Thursday, December 08, 2005 - 12:34 pm: |
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वा, वा mmkarpe ! मस्तच जमली आहे!!
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Sarang23
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| Thursday, December 08, 2005 - 10:27 pm: |
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क्या बात है कर्पे. बढीया!
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डिजिटल सावली काळी सावळी असली म्हणून काय झाले? माझे, माझ्या सावलीवर बेहद्द प्रेम आहे. कारण तीची-माझी पक्की सोयरीक आहे. बर्या-वाईट दिवसात, रात्री-बेरात्रीहि. मझ्या मनात वादळ घोन्घावते, त्याच्या लाटा तीच्या अन्गावर खळाळतात. आमच्यातील अनुबन्ध कालातीत आहेत, वादी-सम्वादी सुरान्ची जोडी जशी पुरातन आहे. आताशा मात्र तीचे अगदीच बिनसलेय, सारखी फुरन्गटून बसते, चिड-चीड करते. तीला कुरन्गी रहायचा कन्टाळा आलाय, एव्हढेच नव्हे, तीला आता डिजिटल व्हायचेय. "ब्लक अन्ड व्हैटचा जमाना गेला, त्यालाहि एक जमाना झाला," म्हणते. कुणीतरी आपल्यावर लादलेला बेरन्ग झुगारून करून पहावे मिक्स अन्ड मच, तीला वाटते. "कसल्या सम्वेदना आणि स्पन्दने घेउन बसलायस, कुठल्या श्रद्धा अन मूल्यान्साठी डोळे ढाळतोयस? आज-काल सायबर स्पेस मधे सारे काही मिळते, डिजिटल फोर्मटमधे, रेकोर्डेड असते. 'एडिट' होते, 'सेव्ह' किम्वा 'डिलिट' हि होते 'कट अन्ड पेस्ट'हि सहज करता येते. तुझी नव-निर्मिती एथे हवीय कुणाला? जरा सायबर कफ़े मधे जाउन तर पहा. आपण फक्त 'डायल अप' करायचे, काय हवे ते 'डाऊन-लोड' करून घ्यायचे. तुझे म्हणजे अगदीच जुनाट खोड झालेय, तू तरी बदल, नाहीतर मला फारकत तरी दे." -बापू करन्दिकर
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सारन्ग, अमित, थन्क्स थन्क्स कसे लिहायचे? कुणी सान्गेल का? सावली हा नवीन थ्रेड सुरु करु या का? बापू
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Amitpen
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| Thursday, December 08, 2005 - 11:28 pm: |
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बापू, थॅंक्स thEMksa असे लिहायचे... एडिटर मध्ये दिसत नाही नीट पण पोष्ट केल्यावर नीट दिसतं...
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Jo_s
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| Thursday, December 08, 2005 - 11:55 pm: |
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yog,dhruva, sarang, karpe, devdatt chhaanch chaalalay. pan eethe kaahichyaa post akshraat tar kaahinchyaa post madhe chaukon kaadisataat. aani te copy karun word madhe pest kele ki vaachataa yetaat.
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(मला) अज्ञात असलेल्या एका इन्ग्रज कविच्या कव्यपन्क्ति: स्वीट दो वेअर मेलडीज यु सन्ग स्वीटर स्टिल वेअर द वन्स, अनसन्ग... त्यान्चा भावानुवाद: गायिल्यास किती तू आर्त विराण्या, गोडी त्यान्ची अपूर्व अवीट होती. दीर्घ वळणावर एका, येताच थबकूनी, वेधलीस तु भैरवी, क्लान्त डोळे मिटुनी. आत अवघा गाभारा नीरवाने भरला, निरान्जनाचि ज्योत नाजूक, थरथरली. सरली वाट, निखळले पाश शेवटले, दिव्य स्वरस्पर्शाने,सोने त्यान्चे झाले. बन्ध सारे विस्कटूनि, बन्दिश बहरली, न गायिलेल्या त्या गीताची, गोडीच न्यारी. त्रिसप्तकी तान तल्लीन, तूच गाता, तूच श्रोता, ताल एक, नाद एक, लयीत विलय एक मत्रा. बापू करन्दिकर
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योग ... ज्या पानावर गृहप्रवेश आहे तिथे प्रतिक्रिया सोडून काही नाही लिहायचं अस ठरवुन टाकलं वाचल्या वाचल्या ... आणखी काय बोलु? बापू , देवदत्त , कर्पे , ध्रुव , मस्त चाललंय ... सारंग ... निर्झर आवडली आणि मुख्य म्हणजे मला नाव दिसलं कवितेचं ... मेल मधल्या चुकीबध्दल दिलगीर आहे
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Sarang23
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| Friday, December 09, 2005 - 4:48 am: |
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कर्पे, सुधीर, वैभव धन्यवाद... वैभव तुला आणि गिरीराजला मेल केली आहे. भेटु या मग...
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Mmkarpe
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| Friday, December 09, 2005 - 4:56 am: |
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निनावी, सारंग, सुधिर,वैभव धन्यवाद.......
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Mmkarpe
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| Friday, December 09, 2005 - 5:14 am: |
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दान...... त्या चांदण्या रात्री किती सुन्दर दिसत होतीस तू... माझ्या केसांशी खेळता-खेळता तू म्हणालीस... आज मागेल ते देशिल का? आणि मी'हो' म्हटल सवयीनं तु मागितलस दान... 'स्वतःच' आणि मी... पुन्हा'हो' म्हटलं तु परतलीस चंद्रही मावळला ऊरला सोबतिला फक्त काळोख...
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