Ninavi
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| Monday, November 28, 2005 - 3:47 pm: |
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भाग्य सुद्धा अशी संधी पुन्हा पुन्हा देणार नाही ती एकवेळ येईल परत, पण वेळ अशी येणार नाही
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आजकाल कुठे आम्हाला देव तरी अडवतो? तिच्या येण्याजाण्यावरच आम्ही आमचे भाग्य घडवतो वैभव!!!
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तशी नेहेमीच उडवीत असते दुर्भाग्य आमुची दान्डी ती असते तेव्हा मात्र फ़िरते जादुची कान्डी वैभव!!!
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Pama
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| Monday, November 28, 2005 - 4:01 pm: |
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हाय निनावी, वैभव.. दोन क्षणांची तुझ्यापाशी असते भेट ठरलेली सारी रात गात्रे माझी तुझ्या साठी झुरलेली..
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Ninavi
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| Monday, November 28, 2005 - 4:03 pm: |
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नका थांबवू दोस्त, अजून शुद्ध थोडी बाकी आहे हातात प्याला रिकामा, पण कवेमध्ये साकी आहे...
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Pama
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| Monday, November 28, 2005 - 4:06 pm: |
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क्षणा क्षणाला आयुष्याचा खेळ होतोय खलास तुझ्या वरून ओवाळून रिचवतोय एक एक ग्लास..
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हाय पमा निलेश... निनावि.. मला वाटलं गेले सगळे ह्या क्षणैक भेटीन्ची मजा अनोखी आहे ह्या दोन क्षणामध्येच युगान्ची असोशी आहे वैभव!!!
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Pama
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| Monday, November 28, 2005 - 4:11 pm: |
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भरलेला प्यालाही रिकामच दिसतो तुला विसरण्या तोही कुचकामी असतो!!
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नका कुजबुजु दोस्तहो इतक्यात कसा हा झिन्गला ओठानी चुम्बुन तिने दिला पहिलाच प्याला वैभव!!!
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Ninavi
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| Monday, November 28, 2005 - 4:14 pm: |
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आज पुन्हा कुणीसं सहज घेतल तुझ नाव सहजच खपली निघाली, नी सहजच वाहिले जुने घाव
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Ninavi
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| Monday, November 28, 2005 - 4:16 pm: |
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अरे, पुन्हा कशी पोस्ट झाली?
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चला निनावि पमा निघतो मी.. उशीर झालाय बराच भेटू पुन्हा
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Pama
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| Monday, November 28, 2005 - 4:18 pm: |
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सारीच शुद्ध हरपून चालणार नाही मला बघायचय मद्याविना झिंगलेल तिला..
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Ninavi
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| Monday, November 28, 2005 - 4:18 pm: |
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maI pNa inaGato Aata.... baaya pmaa
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Pama
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| Monday, November 28, 2005 - 4:19 pm: |
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बाय वैभव, निनावी.. भेटू उद्या..
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Devdattag
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| Tuesday, November 29, 2005 - 1:36 am: |
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त्या बागेत फ़िरतान्ना सतत तुझाच भास होतो तुझ्या आठवणी विसरतान्ना तिथल्या सुगंधाचाही त्रास होतो
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Chinnu
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| Tuesday, November 29, 2005 - 12:59 pm: |
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नाही भेटणार कधी बागेत दिले तुला वचन त्याच बागेत आज पुन्हा तुझ्या आठवणींची पखरण..
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तुझे रूप पाहून पौर्णिमेचा चंद्र दिपलेला दोन चंद्रान्च्या साक्षीने मी रातराणीचा गंध टिपलेला वैभव!!!
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आकाशात चांदण्यांची मैफल सजलेली.... तुझ्या एक एक आठवणींनी प्रत्येक चांदणी भारावलेली....
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दु:ख अनावर झाल कि ढग आसव गळतात.... पाऊस आला म्हनुन वेडे त्यात स्वत:च्या वेदना विसरतात...... निलेश
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सदाफुली नेहमीच फुलल्यासारखी दिसते.. रडतानाही बिचारी हसल्यासारखी वाटते.....
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Suniti_in
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| Tuesday, November 29, 2005 - 4:25 pm: |
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हाय वैभव पमा, निनावि निलेश वा - याच्या सोबातिने मी खुदकन हसून फुलते तो गेला की मग मात्र मनामध्ये कुढत बसते
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Suniti_in
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| Tuesday, November 29, 2005 - 4:33 pm: |
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फुलून बसते मी नेहमी वारा येण्याच्या आशेने स्वपनी जाते जागेपणीही त्याच्या एकाच स्पर्शाने
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Chinnu
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| Tuesday, November 29, 2005 - 4:44 pm: |
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स्पर्श तुझा हवा स्वप्न तुझे हवे अन तुझ्या स्वप्नांच्या तारांवर गीत माझे व्हावे
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समोर माझ्या तुच असावीस माझी म्हणुन वावरणारी .... तुझ्या ललाटीची रेषाही दिसावी माझ प्राक्तन साकारनारी....... निलेश .
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तु गेलीस तेव्हापासुन माझ मन भरकटलेले.... कित्येकदा आवरुनही माझ घर विस्कटलेले... निलेश
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तुझ्या हळुवार स्पर्शानं मला अनेकदा नवा जन्म दिलाय... आणी प्रत्येक जुना जन्म मी र्हुदयात साठ्वुन ठेवलाय.....
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Chinnu
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| Tuesday, November 29, 2005 - 7:46 pm: |
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फ़ार छान निल्या. शेवटच्या दोनही सही!
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Kalpak
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| Tuesday, November 29, 2005 - 11:31 pm: |
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तू आणि मी हे शब्द उच्चारताना यातना होतात अद्वैताच्या भावनेला जणू ते तडा देतात jo_s
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Chinnu
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| Wednesday, November 30, 2005 - 9:16 am: |
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फ़ार सुंदर कल्पना, कल्पक!
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Nalini
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| Wednesday, November 30, 2005 - 11:12 am: |
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विस्कटलेलं घर आवरायला घेतलं परंतु ते जास्तिच विस्कटलं प्रत्येक गोष्ट जागच्या जागी लावताना भुतकाळातलं आयुष्य पुन्हा जगुन घेतलं
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सारं सारं विसरुन सखे तु परत येशील का ? विस्कट्लेले माझे घरटे आपण नव्याने लावुया का ? निलेश
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Nalini
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| Wednesday, November 30, 2005 - 1:16 pm: |
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तुझे घरटे सावरण्याची माझी मनापासुन तयारी आहे पुन्हा तु विस्कटणार नाहीस याची काय खात्री आहे?
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बाहेरून सुबक घरटे आतून विस्कटलेले प्रत्येक नाते आहे स्वार्थात बरबटलेले वैभव!!!
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Nalini
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| Wednesday, November 30, 2005 - 1:31 pm: |
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तुलाच कसे दिसतात सगळे नाते बरबटलेले? फाटक्या छताचे घरटे माझे पहाताक्षणीच तु नाकारलेले
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