Manogat
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| Thursday, March 01, 2007 - 12:03 am: |
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Bee, Daad अप्रतिम, सुरेख लिहिल आहे...
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R_joshi
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| Thursday, March 01, 2007 - 12:22 am: |
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बी, शलाका खुपच छान बासरी ओठावरी शोभे शामवर्णी कृष्णाच्या नयनी प्रेम विलसे श्वेतवर्णि राधेच्या रास रंग रंगली वळणावरी वृंदावनाच्या चित रंग रंगली प्रेमरंग कृष्णाचा प्रिति
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Bee
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| Thursday, March 01, 2007 - 3:31 am: |
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मन व्याकूळ व्याकूळ पाहे निर्मळ डोहात ढग डोळ्यात येती उठवी तरंग जळात..
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Ajay_103
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| Thursday, March 01, 2007 - 5:11 am: |
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तुझ्या मनात खोलवर उतरावसं वाटल होत पण तीथ तर विचारांच काहुर दाटल होत कधीतरी नकोत्या विचारांना चाट दयायची असते मनात उतरायला थोडीशी वाट दयायची असते.
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नविन वळण, नविन आयुष्य मी मात्र जुना माझ्या काळजावर तुझ्या आठवणींनीच्या खुणा श्री
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Shyamli
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| Friday, March 02, 2007 - 3:14 am: |
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आठवणींनीच्या>> आठवणिंच्या खुणा अस जास्त छान वाटेल वाचायला
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Mankya
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| Friday, March 02, 2007 - 3:26 am: |
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श्री ... मस्तय ओ ! अन श्यामलीला अनुमोदन ! माणिक !
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धन्यवाद शामली, माणिक. तुम्ही अगदी योग्य म्हणताय. श्री
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श्री, छान चारोळी! गणेश(समीप)
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Chinnu
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| Friday, March 02, 2007 - 9:47 am: |
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सर्वच छान लिहित आहेत. बी, शलाका, मेघधारा, तुमची चारोळी विशेष आवडली.
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Bee
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| Friday, March 02, 2007 - 10:41 pm: |
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भर उन्हाशी फ़ुलतो मोगरा शुभ्र देहातून गंधाळतो साजरा सखीसाजणीच्या केससंभारात उमलतो स्वप्नकळ्यांचा गजरा..
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Shyamli
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| Sunday, March 04, 2007 - 2:31 am: |
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विस्कटून गेला वारा गुंफलेल्या बटांना फिरुनी कसे आवरावे आठवांच्या लाटांना
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Shyamli
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| Sunday, March 04, 2007 - 2:37 am: |
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मजा काही औरच या आठवांची कधी देती अश्रु तर कधी लोभस हालचाल हलकीशी ओठांची
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Jo_s
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| Sunday, March 04, 2007 - 3:28 am: |
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आठवणींत विसरले सारे आज वर्तमानं फिरून फिरून येई कारे गोड आठवण
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Jo_s
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| Sunday, March 04, 2007 - 3:49 am: |
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स्वयंपाकातल्या मिठा इतक्याच काढाव्या आठवणी अति झाल्या तर होइ खारट अजीबात नसता अळणी
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Mankya
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| Sunday, March 04, 2007 - 11:54 pm: |
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तुझ्या आठवणींच्या हिंदोळ्यावर झुलतो गंध तुझ्या श्वासाचा मोगरा मनात फुलतो ! श्यामली .. मस्तच ! माणिक !
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Bee
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| Monday, March 05, 2007 - 3:18 am: |
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जर्द पिवळ्या रानफ़ुलांना उन्हातान्हाचे कसले भय, पोपटी पातीच्या तलवारींचा चाले वारा कापण्यांचा खेळ..
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धन्यवाद गणेश (समीप). श्री
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ऊनाची तिव्रता आता वाढतच आहे मोगर्याला बहार येत आहे माझ्यासारखा अलिप्त राहणारा पळस भर ऊन्हात कोवळा होत आहे. श्री
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R_joshi
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| Tuesday, March 06, 2007 - 6:10 am: |
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झुळुक छान बहरतेय. चालु देत चांदण्यांनी फुललेली ती रात होती अंगणात रातराणी बरसत होती सुखावल्या रात्रिला चंद्राची साथ होती शांतसमयी कुणाची ती आर्जवी हाक होती? मन व्याकुळले, गंध रातराणीचा लोपला चंद्राला लागला हा अभिश्राप कोठला आर्जवाची हाक मनाचा ठाव घेत होती शांतसमयी कुणाची ती आर्जवी हाक होती? प्रिति
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