वा-यासंगे बेभान व्हावे आकाश सारे कवेत घ्यावे शब्दांच्या या जादुयि दुनियेत मी काव्य बनुनी वास करावे व्वा!!! मस्तच
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Phatrya
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| Monday, December 04, 2006 - 7:10 am: |
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कोवळ्या सुर्याची कोवळी किरणे, सोनेरी किरणे सोनेरी किरणांची, सोनेरी पहाट. बकुळीच्या फुलांनी सजलेली माझ्या घराशेजारी एक पाऊलवाट. श्री
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Devdattag
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| Monday, December 04, 2006 - 7:23 am: |
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स्मरते मला अजुनी ती रात आगळी होती भेटले ऐसे किती ते तिची बात आगळी होती स्वप्नात माझिया ती पाय वाट आगळी होती जरीही दो क्षणांची ती साथ आगळी होती हरलो असा तिला मी ती मात आगळी होती तोडले भाव किनारे ती लाट आगळी होती
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श्रीकांत, दोन्हीही झुळुका छान हरलो असा तिला मी ती मात आगळी होती देवदत्त, तुमच्याबद्दल तर काही प्रश्नच नाही...
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Pujarins
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| Monday, December 04, 2006 - 9:02 am: |
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स्पर्श उरूनी गेला दवबिंदूच्या रंगात द्राक्षाळाचे फ़ूल फ़सले रातराणीच्या गंधात
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वा! रुप,प्रिती,पुनम,.. वदळ सुरु आहे की श्री,देवा मस्तच.. पुजारी तुमची कविता नाही दिसली
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R_joshi
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| Tuesday, December 05, 2006 - 2:10 am: |
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श्री, पुजारी छानच देवदत नेहमीप्रमाणेच उतम मृ तुझ्या झुळुका कोठे आहेत?
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R_joshi
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| Tuesday, December 05, 2006 - 2:13 am: |
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शब्द न सुचे मला हे काय जाहले अमृत ओठी असुनही अमर न मी जाहले. प्रिति
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R_joshi
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| Tuesday, December 05, 2006 - 2:15 am: |
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शलाका कोठे राहिली? बरेच दिवसात झुळुकेवर नाहि
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अमृताहुनही कोटीगुणे गोड जेथीचे उदक त्या वात्सल्यचरणी मी ठेविले मस्तक रुप
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R_joshi
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| Tuesday, December 05, 2006 - 6:49 am: |
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वाह, वाह!!!! रुप फारच छान चरण जेथे तुझे तेथे स्वर्ग मज सापडे वात्सल्याचि गंगा तु जीवन मम तुज वाहिले प्रिति
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R_joshi
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| Tuesday, December 05, 2006 - 6:51 am: |
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तु स्मरते मला निशिदिनी बहरलेल्या रातराणिसारखी मन माझे धुंद होते दिसता धुंद हि रातराणि प्रिति
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R_joshi
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| Tuesday, December 05, 2006 - 6:55 am: |
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मी बहरत का चाललि आहे माझे मलाच कळत नाहि काव्यरंगात बहरल्यावाचुन आता मला राहवत नाहि प्रिति
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Phatrya
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| Tuesday, December 05, 2006 - 7:12 am: |
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लगे रहो. तुम्ही सर्वजण खूपचं सुंदर झुळुका करतात. अमृताहुनी गोड वाटे मजला तुझे शब्द काय सांगू तुजला "मी जागीच झालो स्तब्द" श्री
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Pujarins
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| Tuesday, December 05, 2006 - 7:49 am: |
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रूप, प्रिती, सुंदर भक्तीरसपूर्ण झूळूका आल्यावर आता शलाकाला पून्हा जोम येईल ही आणखी एक्: विहरताना उंच नभी कशी यावी प्रार्थना कानी देव्हार्यात दिव्यापाशी मातीस आठवते ओवी
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तुझाकडे माझे आत्ता मागणे एक फ़क्त आश्रय दे तुझ्याचरणी मी तुझीच भक्त रुप सुप्रभात लोक्स. प्रिती, श्रीकांत, पुजारिण धन्स...
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मुखी तुझे नाम मनी तुझाच भाव स्वयंसिद्ध तु गणेशा माझियामनीचा फ़क्त तुलाच ठाव रुप
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R_joshi
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| Wednesday, December 06, 2006 - 3:31 am: |
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श्री, पुजारी धन्यवाद रुप तुझे वसे या लोचनी मागणे एक हे तुझ्या चरणी अंतरी तुझी भक्तिज्योत वसु दे मस्तक माझे चरणी तुझ्या लीन असु दे प्रिति
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Devdattag
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| Wednesday, December 06, 2006 - 4:00 am: |
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छान चालु आहे.. वरुणाच्या आगमनाने गंधाळली ऐसी मृदा हाय तिचे ते लाजणे मेहेरबाँ अमुचा खुदा
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Devdattag
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| Wednesday, December 06, 2006 - 4:01 am: |
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वेंधळे आम्ही जरासे अन जरा ती रात होती हाय त्यांच्या लाजण्याला तारकांची साथ होती
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