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R_joshi
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| Friday, December 22, 2006 - 1:37 am: |
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प्रेम कराव आभाळासारख धरणिला समांतर असणार सुखदु:खाच अंतर लांघुन क्षितिजावर मिलन करणार प्रिति
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Mruda
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| Friday, December 22, 2006 - 3:13 am: |
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कोणं म्हणतं काळ सगळ्यावर औषध असतो..? व्रण सुकला तरी सल तसाच रहातो.. मृ
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मृ मस्तंच. रुप, प्रिति अगदी बरोबर लिहिलं तुम्ही. अगं सखे प्रेम असंच वाढणार एक रुसला कि दुसरा हसवणार श्री
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R_joshi
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| Friday, December 22, 2006 - 4:33 am: |
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मृ, श्री छान लिहिलत तु मला हसवाव म्हणुन मी रुसते हसताना डोळ्यातले पाणी तुला हि दिसते प्रिति
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तुझे डोळे तुझे अश्रु तुझ हसणं... काय असतं जगणं?
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तुझी हास्यमुद्रा हेच माझे जगणे.. अश्रू तुझ्या डोळ्यातील मला कधि ना पहावणे..
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तुझ्या गालातली पाहुनि खळी, माझे मनही प्रसन्न होई.. त्यासंगे एकच विचर करी कशी फुलवित ठेविन ही कळी.. Yo !!
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तुझ्या संगतिचा गारवा विझवेल मनातीलही वणवा.. सावरेलही खळवळलेल्या समुद्रात, माझ्या जीवनाची नाकवा.. Yo !! 
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हम्म्म्म्म्म्म योगी, काय चाललय तुझं???? लगे रहो... भ्रमर
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R_joshi
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| Friday, December 22, 2006 - 11:23 pm: |
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योगी भ्रमर मनातिल भावनेला शब्दरुप दिलेस माझ्या नकळत मला माझ्यापासुन चोरलेस प्रिति
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मनातील भावनांना कुंपणात बांधणे अशक्य त्यांना शब्दरुप देणे तर त्याहुनही अशक्य रुप
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योगी तुझ्यासाठी... गालावरच्या खळ्यांच्या प्रेमात तो पुरता अडकला त्याच्याच नकळत तो तिच्या प्रेमात पडला रुप
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Swasti
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| Saturday, December 23, 2006 - 7:11 am: |
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रुप मनी दाटलेल्या भावनांही कधीतरी वाटतं शब्द व्हावं कवितेचं रुप घ्यायला मात्र त्याना तुझंच निमित्त हवं स्वस्ति
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योगी चांगला बहर आलाय तुला, अखेर सापडली वाटतं. बाहेरचा पाऊस मला खुणावतो तु नाही म्हणताच डोळ्यातुन बरसु लागतो. विद्या.
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R_joshi
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| Tuesday, December 26, 2006 - 4:32 am: |
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योगी,रुप, विद्या फारच छान
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