Pujarins
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| Tuesday, November 21, 2006 - 7:20 am: |
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थंडी किरणांची बोटं धूक्यात गुंतली लाजलेली थंडी अलवार शहारली
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mast... .. .. .. . ...
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R_joshi
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| Tuesday, November 21, 2006 - 11:37 pm: |
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मृदुगंधा, शलाका, पुजारी आभारी आहे. मृ झुळुका सुरेखच बाकि सर्वांच्या झुळुकाही छान आहेत
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R_joshi
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| Tuesday, November 21, 2006 - 11:44 pm: |
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नभा एवढ मन कल्पना किती सुरेख जमेल का मला कधी त्याच्यासारखा आवेग? धरणी एवढी माया जणु आईची ती छाया जमेल का मला कधी तिच्यासारखी सावली व्हाया? प्रिति
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वा!! पुजारी,प्रिती मस्तच.... तुझ्या अधरामृताचा प्याला जेव्हा मी पिला होता निराकार हा आत्मा माझा तेव्हा ओठ झाला होता
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Daad
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| Wednesday, November 22, 2006 - 1:06 am: |
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मृ, क्या बात है! झक्कास!
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R_joshi
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| Thursday, November 23, 2006 - 5:25 am: |
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मृ सुंदर कल्पना आज शब्द मांडते उद्या त्याचे काव्य होईल स्वप्नांच्या या दुनियेत सत्याची हि साथ राहिल प्रिति
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R_joshi
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| Thursday, November 23, 2006 - 5:31 am: |
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नभ बनुन जन्माव नभ बनुन जगाव तुझ्या मायेची छप्पर नभ बनुन असाव नभासारखि आतुर नभासारिखे चंचल मन माझे हे हरिण नभ बनुनीच राहव प्रिति
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R_joshi
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| Friday, November 24, 2006 - 3:25 am: |
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आज राहिले कोठे सगळे? एकहिजण नाही झुळुकेवर?
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R_joshi
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| Friday, November 24, 2006 - 3:29 am: |
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मी स्वत:शीच लपंडाव खेळते एकटिच हरते,एकटिच जिंकते साथ कुणाची घ्यावी हा विचार करते म्हणुनच बहुदा एकटिच राहते. प्रिति
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छान ग प्रिती,पण एकटी नको राहुस..
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R_joshi
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| Friday, November 24, 2006 - 11:31 pm: |
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मृ तुम्ही कोणीहि झुळुकेवर येणार नाहि मग मी एकटिच राहणार ना!!
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Jo_s
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| Saturday, November 25, 2006 - 2:31 am: |
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कुणीच नाही साथीला म्हणून जो न अडून राहील एकटाच अथक जात रहाता साथ आपोआप मिळत जाईल
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R_joshi
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| Saturday, November 25, 2006 - 4:15 am: |
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अथक एकट जाण ही जीवावर येते पाऊल पुढे पडत राहत एकला मार्ग संपत जातो सोबती बनुन मार्गच मग बरोबर येतो प्रिति
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R_joshi
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| Saturday, November 25, 2006 - 4:22 am: |
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मुखवट्यावर मुखवटे चढवुन आपण जगत राहतो स्वत:ची ओळखच विसरुन बसतो माझ्यातल्या 'मी'ला इतक संभाळतो कि तु हि माझाच आहेस हेच विसरुन जातो प्रिति
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Milindaa
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| Saturday, November 25, 2006 - 5:21 am: |
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test
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Jo_s
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| Sunday, November 26, 2006 - 1:36 am: |
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व्वा, प्रिती मुखवटा छानच कधी काही वळणांवर अशा काही घटना घडतात मला, मी भेटताक्षणी सारेच मुखवटे गळून पडतात
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Daad
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| Sunday, November 26, 2006 - 8:57 pm: |
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आज खूप खूप दिवसांनी इथे डोकावलेय... किती किती miss केलंय मी? आजकाल मला भेटायला येताना रात्र विचारात पडते, मुखवट्याच्या!! पौर्णिमा की आवस? माझ्या दिवसाला लागलेलं ग्रहण..... तिला कळलेलं दिसत नाही -- शलाका
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Daad
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| Sunday, November 26, 2006 - 9:05 pm: |
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माझ्या डोळ्यांत डोकाऊन काय उपयोग? डोळे काय, आरसे काय.... कधीतरी फुटणारच, रे तुझा चेहरा लक्षात आहे ना तुझ्या? -- शलाका
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Jo_s
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| Sunday, November 26, 2006 - 11:22 pm: |
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तुझे डोळेच इतकं बोलतायत डोकवायला कशाला पाहीजे हातच्या कंकणाला आरसा कशाला पाहीजे
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