Aavli
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| Saturday, July 15, 2006 - 4:55 am: |
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प्रितीच्या श्रावण सरी.. त्यात मृदुगंधेचा सुवास.. देवदत्ताच्या संगतीने सजे... मायबोलीवर श्रावण रास.. असाच मराठीचा गौरव शब्दातून होवो.. आवली
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R_joshi
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| Tuesday, July 18, 2006 - 12:01 am: |
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श्रावण सरी बरसती मायबोलिवर अहोरात्र चिंबचिंब भिजुन जाती इथे कविंची गात्र गात्र प्रिति
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Giriraj
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| Tuesday, July 18, 2006 - 9:42 am: |
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तव कुंतलांमधुनि वाही हा वारा ग जीवघेणा एकेका श्वासामधुनि हा प्रिय - संकेति मेणा गिरीराज
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Ninavi
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| Tuesday, July 18, 2006 - 9:48 am: |
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माळ उजाड तरीही वारा गंधाळुन गेला काय तिच्या कुंतलांना त्याने स्पर्श होता केला?
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Arun
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| Tuesday, July 18, 2006 - 11:49 pm: |
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कुंद हवा भुरभुरता पाऊस श्रावणाच्या स्वागताला सारेच उत्सुक
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R_joshi
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| Wednesday, July 19, 2006 - 5:32 am: |
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श्रावण सरी रिमझिमणा-या श्रावण सरी गुनगुणा-या श्रावण सरी बरसणा-या तुझ्या माझ्या आनंदात चिंब भिजणा-या
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प्रिती... छाने..., मोगर्याच्या पाकळीत दव अडकले... कोवळ्या किरणात.. घन बरसले.. जादु की किमया.. देवाची ही दुनिया मी न समजले!!!
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सावरु नको अशा त्या रेशमी लडी.. वाराही.. मोहात पडलाय त्यांच्या.. उडु दे की जरा.. काजळी रंगाची अपुर्व छाया
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Devdattag
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| Wednesday, July 19, 2006 - 5:54 am: |
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क्या बात है लोपा.. हाय त्या कुंतलांची सुटली गाठ जराशी ती रात मंतरलेली मीही धरली उराशी
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सरी रिमझिम.. शुभ्र..तार भारी चांदण भिजलं माझीया दारी...!!!
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लपवुन चेहरा. कुंतलात.. अगं... लाज तरी वाहतेय.. निसटुन त्यावर.. कस सावरु आता.. मन आवरु न आवरतं...!!!
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काळा मंतर हा.. जोडीला.. नयनांची.. नशा सावरु तर दे थोड आधी मग आवर या बटा..!!!
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हळुच निघुन गेलीस सकाळी उठुन चांदण्यांचा वास अंगभर ठेवुन!
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भ्रमर मस्त.. (तो ळी दुसरा कर edit करुन फ़क्त)..!!!
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Giriraj
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| Wednesday, July 19, 2006 - 8:14 am: |
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सुटताच गाठ कुंतलांची हा वारा ही बावरला चढता कमान भुवईची पाहून मग तो सावरला! गिरीराज
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Chinnu
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| Wednesday, July 19, 2006 - 3:59 pm: |
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वा वा खासच लोक्स!
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R_joshi
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| Thursday, July 20, 2006 - 3:58 am: |
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चांदणे शिंपित जाताना मन हे हरपुन जाते येता कवेत तुझिया मी माझी न राहते प्रिति
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R_joshi
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| Thursday, July 20, 2006 - 4:13 am: |
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श्रावण सरी आज धुंद वाटल्या ओठांच्या कळी अवचित फुलल्या
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Giriraj
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| Thursday, July 20, 2006 - 7:31 am: |
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एक जुनीच आठव्ली... सावळ देहावर श्रावणसरी साज थेंब टिपिन म्हणता तिच्या अंगभर लाज गिरीराज
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श्रावणाचा ऊनपावसाचा खेळ... तसा नजरेचा लपंडाव कधी चकाकतो..श्वास ओल्या नजरेत होउन ध्यास.. तर कधी भरुन येइ नेत्री उभे आभाळ.. सपकुन जाई सर.. रित्या कळीची ती ओढाळ नजर..
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