Giriraj
| |
| Tuesday, April 11, 2006 - 2:38 am: |
| 
|
प्रसंग अगदी जिवंत केलास तू तर!
|
मिल्या सही.....
open show च फ़ॅशन शोच धावतं चित्रणं... मस्तच गिरी, जिवंत माणसाला मारणारे प्रसंग होते ते... 
|
Maudee
| |
| Tuesday, April 11, 2006 - 4:17 am: |
| 
|
जबरी............... best विडम्बन i have ever read
|
मूळ गाणे जग हे बंदीशाळा रड रे आयटी बाळा कुणी न येथे सुखी रंगला जो तो जाम पकलेला सॉफ़्टवेअरची शान बेगडी पैशांनीही भरे पोतडी सुखे वाढली जरी कातडी, चावे ज्याची त्याला स्वत:वरीच आग पाखडे, मारी फेरे देशापलिकडे न पचलेले जेवण तिथले, उदरी करते लीला कुणा वाटेना मजा किती ही, का आलो तेच न कळते सुटकेला हे मन तळमळे, जो आला तो' वीट'ला
|
मस्त रे देवा!! .. 
|
Polis
| |
| Tuesday, April 11, 2006 - 12:04 pm: |
| 
|
Milinda रॅम्प अन चोली एकदम apt !!
|
देवा,सही रे भिडु अजुन येऊ देत.
|
Milya
| |
| Wednesday, April 12, 2006 - 12:28 am: |
| 
|
धन्यवाद मंडळी .... .....
|
Manuswini
| |
| Thursday, April 13, 2006 - 1:27 pm: |
| 
|
देव्दत्ता हे असेच आहे
|
धन्यवाद लोकहो अजुन एक प्रयत्न मूळ गाणे: या चिमण्यांनो बारबालांनो परत फिरा रे बाराकडे अपुल्या, बंदिह्या उठविल्या बंदिह्या दहा दिशांनी येईल आता ग्राहकांचा पूर अशाच वेळी असु नका रे स्टेजपासूनी दूर चक चक करति आबा उगाच, धक्का त्यांस लागला अवतिभवति असल्यावाचून खुला डान्स तुमचा उरक न होतो आम्हा आमच्या कधीही जामाचा या बालांनो या रे लवकर, नजरा ह्या कावल्या
|
Jayavi
| |
| Wednesday, April 19, 2006 - 12:22 am: |
| 
|
देवा.........झकास मूळ गाणं पण काय select केलंस रे........सही !
|
देवा,झक्कास रे भो.. लगे रहो..
|
Ruchita
| |
| Thursday, April 20, 2006 - 2:18 am: |
| 
|
देवा... काय तुफान लिहितोयस रे.. खुप मजा येतेय...लगे रहो..
|
devadaatta... .. .. .. .. .. .
|
लोकहो आभारी.. अजुन एक बाळ्बोध विडंबन मूळ गाणे: हसले आधी कुणी रडले आधी कुणी तु का मी? तु का मी? सहज सख्या मी रे तुला मारिले मी मारता तु रे मला मारिले त्या मारण्याने हाड मोडता त्या हाडाला तु बोट लावता रडले आधी कुणी तु का मी? तु का मी? नंतर आपलि रे भेटची होता धोतर सावरी पळता पळता ख़ड्यामधे तु पडुनी जाता हात ओढूनी बाहेर काढता रडले आधी कुणी तु का मी? तु का मी?
|
Anilbhai
| |
| Friday, April 21, 2006 - 10:44 am: |
| 
|
निनावीची क्षमा मागुन कविता चे विडंबन घरला.. मला जरा झिंगु तर दे.. मग जाइन की घरला.. अजून कुठे रात्र पुरती झिंगलिये अजून कुठे तहान पुरती सरल्ये अजून एकदा घोट एखादा पिऊन घेऊ दे.. मग जाइन की घरला.. अजून उजाडलेला नाही उद्याचा दिवस अजून पुरता संपायचाय मदिरेचा रस अजून एखादी बाटली रिचवुन टाकू दे.. मग जाइन की घरला.. अजून श्वासांत माझ्या तुझे विखार घुटमळतायत अजून तुझ्या स्पर्शातील चीड मन चुरगळतायत उद्या श्वास मंद होतील.. स्पर्श नुसतेच बधिर होतील.. मग जाइन की घरला.. - अनिलभाई
|
Junnu
| |
| Friday, April 21, 2006 - 11:03 am: |
| 
|
बारबालांनो परत फिरा रे बाराकडे अपुल्या, बंदिह्या उठविल्या बंदिह्या >>
|
Dineshvs
| |
| Friday, April 21, 2006 - 12:19 pm: |
| 
|
मिल्या, पोलिस रिपोर्टप्रमाणे एकीची सरकली आणि दुसरीची टरकली, आता दुसरीला पण न्याय दे कि.
|
A_b_h_i
| |
| Saturday, April 22, 2006 - 12:56 am: |
| 
|
अनिलभाई .. .. ..
|
anilbhai.. .. .. .. .. . .
|