Ninavi
| |
| Wednesday, February 15, 2006 - 1:11 pm: |
| 
|
जास्वंद, तुळशीची आठवण करून दिल्याबद्दल थॅंक्स. अजूनही पहाटेला न्हाते तुळस गोजिरी फुटे नवीन मंजिरी.. अजूनही अंगणात सडा प्राजक्त घालतो आणि तसाच सलतो.. श्यामली, लिही ना पुढे.. तुझी बाजू घेणारे आहेत ना इथे! 
|
Shyamli
| |
| Wednesday, February 15, 2006 - 1:22 pm: |
| 
|
करु का प्रयत्न? बघा कस वाटतय ते..... येणार प्रीया म्हणुन जागते रातराणी सकाळ सगळी फुलवून टाकतो प्राजक्त अंगणी श्यामली!!!
|
Ninavi
| |
| Wednesday, February 15, 2006 - 1:28 pm: |
| 
|
श्यामली, ये हुई ना बात! ही प्राजक्तावरून माझी एक जुनीच.. मूक शब्द.. मूक स्पर्श.. मूक देहबोली पारीजातावर आज बहरे अबोली...
|
Shyamli
| |
| Wednesday, February 15, 2006 - 1:33 pm: |
| 
|
अबोली आणि रातराणी माझिच रुपे दोन्ही अशी कशी विसरलास ओळख जुनी श्यामली!!!
|
तु येनार म्हनुन वेडि रात्रही जागीच होति मागच सार विसरुन रातरानीही बहरली होती....
|
पाउल तुझी माझ्याकडे अधीरतेने यायला निघाली असतील मनानी नाही म्हंटल्यावर वेडी दारातुनच माघारी फिरली असतील
|
Devdattag
| |
| Wednesday, February 15, 2006 - 10:49 pm: |
| 
|
नमस्कार जास्वन्द, श्यामली, पमा. गाव बदलल्याने जरा गडबडीत आहे. त्यामूळे टायपायला जमत नाहीये. येईल गाडी पुढच्या आठवड्यात रुळावर.
|
Meenu
| |
| Thursday, February 16, 2006 - 12:15 am: |
| 
|
वा ही डहाळी छानच बहरलीये...
|
Sarang23
| |
| Thursday, February 16, 2006 - 4:39 am: |
| 
|
श्यामली, ओळख जुनी छान!
|
Jaaaswand
| |
| Thursday, February 16, 2006 - 4:56 am: |
| 
|
हे आपलं असचं...... निशिगंधाचा ऊर तुझा अबोली रुजली ओठी रातराणीच्या स्वप्नांत घे बकुळफ़ुलांची ओटी जास्वन्द...
|
असच काहितरी... वेडा तो प्राजक्त बहरतो भल्या पहाटे स्वत : चे अस्तित्व सोडुन भेटतो त्या भुमाते.... रुप...
|
Jaaaswand
| |
| Thursday, February 16, 2006 - 6:56 am: |
| 
|
अजून एक असच... निशिगंध अन रातराणी रोजनिशी नाचून जात गुलमोहोर त्यांना शोधायचा कडेवर घेऊन पारिजात जास्वन्द...
|
Kaviash
| |
| Thursday, February 16, 2006 - 7:52 am: |
| 
|
बन्द पापण्यातले स्वप्न अलगद उमलले, तुला शोधता शोधता मीच हरवून बसले.
|
पहाटे पहाटे स्वप्न उमलते जाणवतो सुगंधी श्वास तुझा आणि बरसतो प्राजक्त माझा अंगणी तुझ्या!!!
|
निशिगंधाची डहाळी वार्यावर डोलते, माझ्या मनात मात्र... उगीचच कालवाकालव होते!
|
Jaaaswand
| |
| Thursday, February 16, 2006 - 12:58 pm: |
| 
|
जमलं तर बघ नाहीतर सोडून दे श्वासांतले श्वास आपले उसवून दे जास्वन्द...
|
Sparsh
| |
| Friday, February 17, 2006 - 1:06 am: |
| 
|
किती आवरायचं स्वत:ला किती आवरायचं मनाला हे आवरणंही आता फार अनावर झालंय
|
गुंतलेले श्वास सुटने आता नाही आयुष्य उसवले तरी तुटने आता नाही.........
|
Shyamli
| |
| Friday, February 17, 2006 - 2:39 am: |
| 
|
मी कुठे?...... तुझच चाललय सोडुन जाण श्वासातले श्वास ऊसवून नेण श्यामली!!!
|
Meenu
| |
| Friday, February 17, 2006 - 3:33 am: |
| 
|
उसवता येइल रे , ते अगदी सोपं आहे पण शिवलं होतं त्याची खूण राहील सोडून जाशिल पण भेटलो होतो हे कसं विसरशिल?
|
Meenu
| |
| Friday, February 17, 2006 - 3:42 am: |
| 
|
कापडावरची शिवण उसवल्याचाही माग उरेल गुंतलेले श्वास निघतील तरी माझा तूझ्यातला वास उरेल...
|
Shyamli
| |
| Friday, February 17, 2006 - 3:48 am: |
| 
|
ही काय चाललिये सोडासोडी मन करतय कुरघोडी काहीही झालं..... तरी मला तुझीच गोडी श्यामली!!!
|
Jaaaswand
| |
| Friday, February 17, 2006 - 3:48 am: |
| 
|
आपले श्वास तू आता आपसांत वाटून घे आधी माझे संपतील असे इतके तू साठून घे जास्वन्द...
|
Meenu
| |
| Friday, February 17, 2006 - 3:53 am: |
| 
|
जमतय तूला अनावर होणं आणि जमतय गुंतुन जाणं आता फक्त जमायला हवयं सुंदरशी विण विणणं मीनाक्षी
|
तुझ्या माझ्या गुंफ़लेल्या श्वासांची वीण त्यावर आठवांची नक्षी अन दारातली अबोली त्यास साक्षी!
|