Mansmi18
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| Tuesday, October 16, 2007 - 1:48 pm: |
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नम्रता, कुठलाही साहित्यीक आव न आणता अगदी साधे सरळ लिहिलेलेच मनाला भिडते. पत्र वाचत असताना लेखिकेचे वडील, बहीण डोळ्यासमोर उभे राहिले आणि लेखिकेची व्यथाही! अतिशय सुंदर! असेच लिहित रहा. शुभेच्छा!
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चांगलं लिहीलंयस नम्रता. Keep it up. यात तिची आई आणि मीराताई यांचासुद्धा point of view थोडक्यात तरी आला असता तर आणखीन आवडलं असतं मला.
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अतिशय सुंदर, असेच लिहीत रहावे
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Gobu
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| Tuesday, October 16, 2007 - 5:53 pm: |
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नम्रता, खुप छान कथा!
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Runi
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| Tuesday, October 16, 2007 - 6:36 pm: |
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नम्रता, कथेचा विषय आणि मांडणी दोन्ही आवडले. बर्याचदा आई-वडील आपले प्रत्येक मुल वेगळे आहे हे विसरुन प्रत्येकाकडुन सारख्याच (शैक्ष्णीक, इतरही) अपेक्षा ठेवतात किन्वा आपल्या स्वतःच्या ईच्छा मुलांवर लादतात त्याचे योग्य चित्र तु डोळ्यापुढे उभे केलेस.
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Princess
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| Wednesday, October 17, 2007 - 1:03 am: |
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नम्रता, तुझी शैली खुप भावली. लिहित राहा...
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शैली चांगली आहे तुझी लिहिण्याची.. लिहित रहा
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Namrata4u
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| Wednesday, October 17, 2007 - 4:07 am: |
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तुमच्या प्रतिक्रियांसाठी धन्यवाद.. लवकरच पुढची कथा सुरु करते.
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Mankya
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| Wednesday, October 17, 2007 - 6:23 am: |
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नम्रता .. मस्त शैली आहे लिखाणाची ! खूपच आवडून गेलं हे पत्र. माणिक !
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Zakasrao
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| Wednesday, October 17, 2007 - 6:38 am: |
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गुड वन आवडली कथा.
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Daad
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| Wednesday, October 17, 2007 - 6:50 am: |
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नम्रता, खूपच आवडली कथा. विषय तसं म्हटलं तर नेहमीचा, म्हटलं तर "स्फोटक" होऊ शकेल असा. एक कथाबीज म्हणून आणि त्याहीपेक्षा तू ज्या रूपात, ज्या शैलीत हाताळलीयेस, ते त्याहूनही आवडलं. साधी सोप्पी भाषा, ओघ. कुठेही 'हे पत्रं आहे', एका मुलीने आपल्या 'कर्तबगार' वडिलांना लिहिलेलं.... ह्याचा तोल सुटलेला नाही. हीच कथा एका कटू वळणावर आणून सोडता आली असती.... पण positive शेवट मलाही भावतात. लिहीत रहा. छान लिहिते आहेस. (एकदम अगं-जागं वर उतरल्ये!)
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Meghdhara
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| Wednesday, October 17, 2007 - 9:39 am: |
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नम्रता छान लिहिली आहेस कथा. अशोकाची व्यथा अगदी वास्तवपणे सहज मांडली आहेस. कीप ईट अप! मेघा
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Itgirl
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| Wednesday, October 17, 2007 - 4:53 pm: |
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खरच, अतिशय साधेपणे कुठलाही साहित्यिक आव न आणता लिहिले आहेस, आपल्या माणसांना आपण असे साध्या, घरगुती भाषेतच तर लिहितो छान जमलय
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Asami
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| Wednesday, October 17, 2007 - 6:42 pm: |
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साध्या सरळसोट भाषेत एकदम ओघवते लिहिलेयस
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Paragkan
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| Thursday, October 18, 2007 - 1:45 am: |
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khaasaach !! chhaanach lihilay ,,,
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Pony
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| Thursday, October 18, 2007 - 2:32 am: |
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वा फारच छान! बघ ना अगदी कळ्जाल भीडाली ग ही कथा. लवकाराच दुसरी पठाव.
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Bee
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| Thursday, October 18, 2007 - 10:38 am: |
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कथा खरी वाटत राहीली शेवटपर्यंत.. शेवट खूपच हळवा केला आहे.. टचकन अश्रू खाली सांडले.
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Mrinmayee
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| Thursday, October 18, 2007 - 2:19 pm: |
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नम्रता, सुरेख लिहिलं आहेस!
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Disha013
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| Thursday, October 18, 2007 - 5:19 pm: |
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खुप हळवं लिहीलयं.....खुप सुरेख!
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फार छान आहे कथा
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T_pritam
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| Saturday, October 20, 2007 - 5:09 am: |
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अप्रतिम.... खुपच छान मांडणी आहे पत्राची... अशोकाची व्यथा अतिशय सुरेखपणे आणि परिणामकारक तर्हेने व्यक्त केलीय..... अश्या आई-वडलांची कीव करावीशी वाटते जे नकळतपणे स्वत्:च्या एखाद्या मुलामुलीवर अन्याय करतात.... छान विषय आहे.... कथा खुप आवडली.... अभिनंदन! Keep Going....waiting for more such stories...
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Chinnu
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| Tuesday, October 23, 2007 - 5:04 pm: |
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नम्रता आणि सायली, रडविलतं! अजून येवु द्या!
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Radha_t
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| Friday, October 26, 2007 - 6:54 am: |
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अशोका तुझ पत्र वाचल. शेवटची ओळ वाचून तर डोळ्यात टचकन पाणीच आल. अभिनंदन नम्रता, सायली. Kepp going
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Aashu29
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| Friday, October 26, 2007 - 1:54 pm: |
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घसा दाटुन आला, डोळे भरुन आले!! आता बाकि काहि सांगवत �ाहि.
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