Jagu
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| Friday, April 13, 2007 - 10:01 am: |
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गोबु तू केलेल्या अभिनंदना बद्द्ल धन्यवाद. प्रिती अग फ़ारच सुंदर रचना केलीस. मला खुपच आवडली.
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Mankya
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| Friday, April 13, 2007 - 10:26 am: |
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तुझ्या सहवासात सुखदुःखाचे चार क्षण पुसलं कोणी ' काय जगलास ?' आनंदे उत्तरतो ' चार क्षण !' माणिक !
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R_joshi
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| Friday, April 13, 2007 - 11:25 am: |
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धन्यवाद जगु माणिक तुझ उत्तर माझ जीवन आहे ह्या जगण्यालाच खरा अर्थ आहे मेघांच्या बरसण्यानेच हि धरती तृप्त होणार आहे प्रिति
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Mankya
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| Friday, April 13, 2007 - 5:34 pm: |
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सर्वस्व अर्पिल्यावर आपले असे काय उरते म्हणूनच कि काय आत्महत्या पातक ठरते ! माणिक !
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R_joshi
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| Saturday, April 14, 2007 - 5:45 am: |
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आत्मा हे सर्वस्व मानल तर त्याची हत्या रोजच होते रोज आत्महत्या करुनही मी कशी जिवंत राहते? प्रिति
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Gobu
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| Saturday, April 14, 2007 - 11:22 am: |
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प्रीती, हाय हाय!!! कलेजा खल्लास!!! काय लिहीलेस!!! तु फ़ुलवलस तर... सुन्दर!!!! मानक्या, अरे बाबा मी केलेले कौतुक आवडले नाही का रे? तु छान लिहीतोस रे
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R_joshi
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| Saturday, April 14, 2007 - 11:38 am: |
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धन्यवाद गोबु आपल्याहि चारोळ्या येऊ देत
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Gobu
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| Saturday, April 14, 2007 - 12:34 pm: |
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अरे बापरे! मी लिहायला सुरु केल्यावर हा बिबि बन्द करावा लागेल  कविता लिहीण्याइतकी बुद्धी मिळाली नाही (मागच्या जन्मी खुप पाप केले होते!  ) पण ईश्वरकृपेने कविता समजतात आणि वाचायलाही आवडतात!!! आणि हो, भगीनी मला आहो जाहो करु नकोस, कुवैतच्या बिबिवर पाहशील सगळे कशी थट्टा करतात माझी, लहान आहे म्हणुन!!!
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Manogat
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| Monday, April 16, 2007 - 9:56 am: |
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आपण काय वेगळे आहोत, हे तुझेच वाक्य आहे, आज तुझ्या "आपण" मध्ये, हा पण का वेगळा भासतो आहे.
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Mankya
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| Monday, April 16, 2007 - 5:22 pm: |
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गोबू .. तसं काही नाही रे मित्रा .. मनःपुर्वक आभार ! आज तूझ्या शब्दाने काळजाचा ठाव घ्यावा जन्मजन्मांतरी जपेन उरी असा घाव द्यावा ! माणिक !
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Mankya
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| Monday, April 16, 2007 - 6:29 pm: |
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आता कुशीत तुझ्या घ्यावा क्षणिक विसावा स्पर्शच देईल ग्वाही हरेक श्वास पुरावा ! माणिक !
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R_joshi
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| Tuesday, April 17, 2007 - 5:20 am: |
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माणिक फक्त एका नजरभेटित दोघे बांधले जातो प्रेम हे असे असते ज्याचे आपण गीत गातो मिलन दोघांचे चांदण्या रातीत व्हावे तु माझ्यात मी तुझ्यात संपुर्ण विलिन व्हावे प्रिति
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Gobu
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| Tuesday, April 17, 2007 - 8:32 am: |
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मानक्या, आज तूझ्या शब्दाने... आता कुशीत तुझ्या... वरील २ रचना अतिशय सुन्दर आहेत! (तुझ्या या कवितानी माझ्या काळजाचा ठाव घेतला, माझा तत्काळ प्रतिसाद याचीच ग्वाही देतोय) मित्रहो, आणखी येवु द्या
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Mankya
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| Tuesday, April 17, 2007 - 12:13 pm: |
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तुजरुपे स्पर्शिलं चांदणं ते मनात जपावं .. साठवावं स्पर्श निमित्त फसवं आठवाचं त्या ओघात पून्हा तूलाच स्मरावं ! माणिक !
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पाऊस असा दुष्ट दुरूनच म्रुद्गंध देत ओंजळी हातांच्या पुन्हा पुन्हा जोडून घेत. मेघा
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शोधतेय मनात जुनं बहरणं तरी दिसावं बाकी मनाला समजावतेय आता तरी मला मनावर घ्यावं. मेघा
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तू फुल ना? फुलाने नेहमीच हसायचं गजर्यात, हारात, तुर्यात, समाधीवर देठापासून तुटूनच जायचं. मेघा
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Chinnu
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| Tuesday, April 17, 2007 - 2:08 pm: |
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मेघा फुलांचे कर्तव्य छान आहे. दुष्टच आहे ग पाऊसपण! दोनही झुळुका सुंदर.
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Giriraj
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| Wednesday, April 18, 2007 - 6:07 am: |
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पाऊस असा हा दुष्ट बरसे मी बाहेर पडता अन् बघतो तिरपिट माझी मी मजला झाकून घेता गिरीराज
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Princess
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| Wednesday, April 18, 2007 - 8:43 am: |
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पाऊस असा दुष्ट, तुझी सय घेउन येतो... अंगणात बरसायचे सोडुन डोळ्यातुन वाहु लागतो
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