Mankya
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| Friday, March 23, 2007 - 11:48 am: |
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या आठवणीही किती बाई फसव्या रडक्या अता हसवती रडवतील बरं हसर्या ! माणिक !
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Mankya
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| Monday, March 26, 2007 - 8:25 am: |
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आपल्या दोघात खेळाचा डाव अजब चालतो अर्धा तू जिंकतेस अन अर्धा मी हारतो ! माणिक !
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R_joshi
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| Monday, March 26, 2007 - 9:30 am: |
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डाव खेळाचा मांडला मग हार जीत व्हायचीच अर्धा डाव जिंकले तरी तुझ्या हरण्यातच माझी हार मानायची. प्रिति
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Mankya
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| Monday, March 26, 2007 - 9:38 am: |
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हतबल मी खेळात तरी खेळनेही सोडवत नाही डाव हाती असला तरी हरताही मला येत नाही ! माणिक !
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Amruta_w
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| Monday, March 26, 2007 - 5:45 pm: |
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खुपदा वाटलं... खुपदा वाटलं प्रेमात तु जिंकाव अन मी हरावं मला जिंकवण्यासाठी मग तु खुप खुप प्रेम करावं.. रुसुन बसले मी की येउन मला तु हसवावं बोटांच्या स्पर्शानी तुझ्या गालावरच्या खळीला फ़ुलवावं.. जवळ घेउनी मला तु लाडे लाडे बोलावं अन तुझ्या या प्रेमावर भाळुन माझ्या आसवांनी ओघळावं....
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Mankya
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| Monday, March 26, 2007 - 5:48 pm: |
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Amruta_w... अगं कविता विभागात टाक ना ही ! छान आहे कविता ! माणिक !
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R_joshi
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| Tuesday, March 27, 2007 - 4:41 am: |
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अमृता ओघळणा-या अश्रुंना ही वाट तुझीच दिसते प्रेम तुझे लाभावे म्हणुन जिंकुनहि मी हरते प्रिति
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Jo_s
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| Tuesday, March 27, 2007 - 5:18 am: |
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माणिक आपल्या क्रिकेट टिम मधे जा सहज हरता येईल. दिवा घेरे बाबा
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Mankya
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| Tuesday, March 27, 2007 - 6:31 am: |
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Jo_s... Great यार ! फुलाला पायाशी जागा शिळेला देवाचा मान क्षणमात्र आयुष्य फुलाला पाषाणाला चिरतारुण्याचे वरदान ! माणिक !
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Jagu
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| Tuesday, March 27, 2007 - 8:09 am: |
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हिन्दू आणि मुसलमान धर्मा वरुन दंगा करतात पण संकष्टी आणि इदीला एकच चंद्र पूजतात जगु
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Manogat
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| Tuesday, March 27, 2007 - 9:12 am: |
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मस्त माणिक , प्रफ़ुल्लित व्हाव मन होता त्याचे दर्शन, अवघ्या आयुश्याच्या फुलाला, आहे हे देवाचे वरदान.
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Manogat
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| Tuesday, March 27, 2007 - 9:29 am: |
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जीवन ते मोलाचे, जे कोणाला सु:ख देत, अवघ्या जगणार्या आयुश्यातुन, दु:खाचा विसर पाडत.
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Bee
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| Tuesday, March 27, 2007 - 10:17 am: |
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कोवळ्या कोवळ्या पानातूनी कोवळे कोवळे ऊन झरे, वसंताची चाहूल लागताच आसमंती यौवनगंध फ़िरे..
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Mankya
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| Tuesday, March 27, 2007 - 1:04 pm: |
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दिखाव्याची वर्दळ ईथे भर अभिलाषेच्या तवंगाची शब्दांची नुसतीच गर्दी अन चेंगराचेंगरी भावनांची ! माणिक !
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Mankya
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| Tuesday, March 27, 2007 - 1:10 pm: |
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प्रत्येकजण वठवत असतो कसलेतरी सोंग निरागसतेचा प्राण घेतो औपचारीकतेचे ढोंग ! माणिक !
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ऋतू बदलले तुही बदललीस भर ऊन्हात तुही बरसलीस
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Mankya
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| Friday, March 30, 2007 - 10:00 am: |
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ऋतू येत होते ऋतू जात होते आठवांनी कूस बदलता नवऋतुची सुरूवात होते ! माणिक !
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कुठवर जाऊनी खरोखरी थांबतात हे रस्ते ? चालावे तितकेच कसे लांबतात हे रस्ते ? हासतात का उगा बिचारया मुशाफिरास हे रस्ते ? सगेसोबती म्हणायचे की मुडदेफरास हे रस्ते ?
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Chinnu
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| Friday, March 30, 2007 - 2:14 pm: |
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बी कोवळ्या पानातून.. मस्त! ए ती कविता छान होईल बरं. माणिक, आठवांची कूस बदलता छान. गुरुजी, लय भारी. मुडदेफ़रास रस्ते, क्या बात है!
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Mankya
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| Friday, March 30, 2007 - 6:54 pm: |
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वैभवा .. अप्रतिम प्रकटलास !
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