तू उत्तर मी दक्षिण... तरीही आपल्यात कसे.... वेगळे गुरुत्वाकर्षण! गणेश(समीप)
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Princess
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| Tuesday, March 20, 2007 - 9:33 am: |
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हर घडी मी जळत होती, तू दिलेली हरेक जखम भळभळत होती माझ्या या वेदनेत कोण होते सहभागी? पाहिले तर, सारी दुनिया हळहळत होती.
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Mankya
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| Tuesday, March 20, 2007 - 10:53 am: |
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ह्रुदयाच्या जखमांत जखमांच्या वेदनांत वेदनांच्या कळांत शोध तुझाच .. कणाकणात ! माणिक !
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Princess
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| Tuesday, March 20, 2007 - 11:18 am: |
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मी कणाकणाने जळतेय ते तुलाही कळतेय, फुंकरही तू घालु नये असे काय तुझ्या हृदयी सलतेय?
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Princess
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| Tuesday, March 20, 2007 - 11:21 am: |
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अजुनही आहेत खुणा जुन्या घावांच्या भरलेत की कळवेन, दे जखमा नव्या जराश्या
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Mankya
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| Tuesday, March 20, 2007 - 11:25 am: |
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तुझं जळणं कणाकणातून सखे धग मलाही लागते पण फुंकर घालून पेटणार्या वणव्याची भिती मला वाटते ! माणिक !
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Mankya
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| Tuesday, March 20, 2007 - 11:29 am: |
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जखमा नव्या जुन्या फरक कुठे कळतो तोच सल तीच वेदना नित्य नव्याने जळतो ! माणिक !
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Princess
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| Tuesday, March 20, 2007 - 11:31 am: |
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माणिक जळताना आता मला किती शीतल वाटतय तू दिलेले वणव्याचे कारण आता मलाही पटतय
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Mankya
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| Tuesday, March 20, 2007 - 11:39 am: |
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तुझं जळनही मला मनापासून पटलं जळताना शीतल बघून तुला मलाही जळावं वाटलं ! माणिक !
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Manogat
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| Tuesday, March 20, 2007 - 12:37 pm: |
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अस्तित्वच उरल नसतांना तु द्यावि जगण्यचि कल्पना, विझलेल्या निखार्यंना, जशी विचारावी जळण्याची वेदना.
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R_joshi
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| Wednesday, March 21, 2007 - 9:46 am: |
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माणिक, प्रिन्सेस,मनोगत विझले निखारे जरी धग त्यांची कायम असते नव्याने जळण्यासाठी या धगाचीच गरज असते. प्रिति
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Mankya
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| Wednesday, March 21, 2007 - 10:37 am: |
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नव्याने जळायला विझायला कुठे कारण लागते नखशिखांत अंगार फुलायला श्रावणाची सर लागते ! माणिक !
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R_joshi
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| Wednesday, March 21, 2007 - 11:19 am: |
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श्रावणसर बरसली तरी अंगार फुलतोच अस नसत स्वत: जळत राहायचे असल्यावर विझायच कारणच नसत प्रिति
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Mrunatul
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| Wednesday, March 21, 2007 - 1:25 pm: |
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तुझी आठवण येत नाही असा एकही दिवस जात नाही आठवणी तर येतच राहतात गेलेले दिवस का परत येत नाहीत
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'माझं आयुष्य तुला लाभावं रे!' ती किती सहज बोलून गेली, आणी माझं मरण जिकंणार्या त्या यमाला ती किती सहज हरवून गेली! गणेश(समीप)
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R_joshi
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| Friday, March 23, 2007 - 7:02 am: |
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दिवस परतत नसतात ते आठवणित जतन होतात म्हणुनच बहुदा माणस आठवणिंवर जगत असतात प्रिति
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Manogat
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| Friday, March 23, 2007 - 9:47 am: |
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आयुश्यात बरच काहि घडत गेल मागच विसराव नाही, म्हणुन देवाने प्रत्येकाला, एक आठवणिंच गाव दिल.
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R_joshi
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| Friday, March 23, 2007 - 9:52 am: |
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मनोगत आठवणिंच्या गावाची त-हा जरा निराळी दु:खाची वळण घेत सुखाच्या तीरावर वसलेली प्रिति
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Mankya
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| Friday, March 23, 2007 - 11:31 am: |
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अश्रूसांठी कुठे आता कसला घाव लागतो आपूसच वाहतात जेव्हा आठवांचा गाव जागतो ! माणिक !
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R_joshi
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| Friday, March 23, 2007 - 11:45 am: |
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आठवणिंच्या गावी जायला क्षणाचा विलंब लागत नाहि तेथुन परत येण्यासाठी मात्र दिवसहि पुरत नाहि प्रिति
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