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Kandapohe
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| Friday, January 06, 2006 - 1:22 am: |
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अनेक दिवस या बंगल्या वरून जात होतो पण तो क्रमशःचा बोर्ड पाहून हिम्मत होत नव्हती. आज समाप्त वाचले आणि डेअरिंग केले. रहस्यमय, गुढ कथांचा शेवट येत नाही तो पर्यंत वाचण्यात मजा नाही. कारण उगाच अनेक दिवस मनात खंत रहाते. असो. श्र, देर से आये दुरूस्त आये. छान लिहीली आहेस. अशीच तुझी प्रतिभा कलाकलाने वाढूदे. 
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Gs1
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| Friday, January 06, 2006 - 3:49 am: |
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श्रद्धा, कथा आणि लेखनशैली छानच आहे. शेवटही मनोव्यापार आणि गुढसृष्टी यांच्या सीमारेषेवरच सोडला आहेस हे आवडले.
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Chinnu
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| Friday, January 06, 2006 - 1:02 pm: |
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श्र, तुझी प्रतिभा बंगल्या बंगल्याने वाढो, हीच सदिछछा!
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Pama
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| Friday, January 06, 2006 - 4:45 pm: |
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श्रद्धा, सुरेख लिहिली आहेस कथा. शेवटी उगाच स्पष्टीकरण दिले नाहीस त्यामुळे जिवंत राहिलीय.
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श्र, पुढे लिही ना..
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चोखंदळ ग्राहक |
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महाराष्ट्र धर्म वाढवावा |
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व्यक्तिपासून वल्लीपर्यंत |
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पांढर्यावरचे काळे |
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गावातल्या गावात |
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तंत्रलेल्या मंत्रबनात |
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आरोह अवरोह |
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शुभंकरोती कल्याणम् |
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विखुरलेले मोती |
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हितगुज गणेशोत्सव २००६ |
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