Devdattag
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| Wednesday, January 11, 2006 - 5:21 am: |
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वातीत तेल आहे म्हणून जळणे व्यर्थ आहे प्रकाश देण्यासाठी जळणे ह्यातच परमार्थ आहे
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Jaaaswand
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| Wednesday, January 11, 2006 - 5:41 am: |
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स्वार्थ अन परमार्थ कशाला हो तात्विक खेळ सत्य आहे वारा एकच सांगून का कधी येते वेळ जास्वन्द...
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Devdattag
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| Wednesday, January 11, 2006 - 5:55 am: |
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वेळ सांगून येत नाही ह्याचीच तर खंत आहे इथे आजचाच पत्ता नाही तरी उद्याची भ्रांत आहे
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Shyamli
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| Wednesday, January 11, 2006 - 6:15 am: |
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ऊद्याच्या त्या भ्रान्तिपायी श्रम अविश्रान्त आहे वाहणे हा धर्म माझा मी असाच निर्झर वाहे श्यामलि मूडि बदल केलाय ग! अजुनही चुकान्च स्वागत आहे.........
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Jaaaswand
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| Wednesday, January 11, 2006 - 7:16 am: |
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माफ़ करा मित्रान्नो.. परत track change करतोय हसून बघ थोडेसे जगणे तुला जमून जाईल वात होऊन तर बघ कधी जळणे तुला भावून जाईल जास्वन्द...
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Devdattag
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| Wednesday, January 11, 2006 - 7:28 am: |
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सांगितले तिला मजकडे एकदा तरी हासून पहा उत्तरली ती साबणाने थोबडे ते घासून पहा
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Shyamli
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| Wednesday, January 11, 2006 - 7:38 am: |
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खरच वात होऊन जळताना हेच जगणे जमुन गेले हसुन बघताना तुला जीवन गाणे समजुन गेले श्यामली
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Jaaaswand
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| Wednesday, January 11, 2006 - 7:51 am: |
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मोहिनी होती.. आजही आहे मला टिमटिमणार्या दिव्यांची वाट होती अंधुकशीच पण साथ नव्हती काजव्यांची जास्वन्द...
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Shriramb
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| Wednesday, January 11, 2006 - 8:00 am: |
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जगुन दाखव थोडेसे हसणे तुझे विरुन जाईल वादळवाटेवरची वात फडफड करत विझुन जाईल
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Devdattag
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| Wednesday, January 11, 2006 - 8:02 am: |
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का तिमिरात तू शोधीसी काजव्यांची साथ अरे आहेच सोबतीला तो अनाथांचा नाथ
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Devdattag
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| Wednesday, January 11, 2006 - 8:11 am: |
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जगता जगता आम्ही करतो हसण्याचाही प्रयत्न थोडा तेही काय दिवस होते जेंव्हा आमचा जमला नव्हता जोडा
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Shyamli
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| Wednesday, January 11, 2006 - 8:14 am: |
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वादळवाटे वरची मी वात नाहि भीत मी अन्धारास फडफडणारी ज्योत माझि विझण्यासाठीच तर हा प्रवास श्यामली
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Jaaaswand
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| Wednesday, January 11, 2006 - 8:17 am: |
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अरे काय रे देवदत्ता.... इतक्यातच कंटाळलास.... आमची तर अजून सुरवात पण नाही झाली
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Shriramb
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| Wednesday, January 11, 2006 - 8:20 am: |
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दूर कुठे अकाशात कोणी अनाथांचा नाथ कशापायी येईल तो माझ्या काळोख्या खोपीत? उजळाया झोपडे हे नको कुणाचेही ऋण पुरे मला पामराला काजव्याची मिणमिण
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Devdattag
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| Wednesday, January 11, 2006 - 8:23 am: |
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काही खास कारणासाठी आमुच्या बालपणी आम्हीही शाखेत जात होतो मग पाहता हैदोस तो अस्मादिकांना वात येतो काय म्हणता मूडी, मिल्या
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Devdattag
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| Wednesday, January 11, 2006 - 8:26 am: |
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जास्वंद सुरवात तर माझीही नाही झाली.. ते तर पुढच्याच ठेच..
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Devdattag
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| Wednesday, January 11, 2006 - 8:31 am: |
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नसे अंबरात त्या तो चराचरात आहे मागीसी साह्य ज्याचे त्या काजव्यात तो राहे
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Jaaaswand
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| Wednesday, January 11, 2006 - 8:45 am: |
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दिसला आहे मूर्तीत अन शोधला आहे स्वस्तिकात कधी आस्तिकांच्या घरी कधी राहीला आहे नास्तिकांत जास्वन्द...
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Shriramb
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| Wednesday, January 11, 2006 - 9:03 am: |
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प्रकार बदल कुठे तू, कशी तू कधी भेटशी तू? कळूदे तरी आज तुझा काय हेतू
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Devdattag
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| Wednesday, January 11, 2006 - 9:03 am: |
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तातांस आमुच्या रे जमदग्नीच गोत्र साजे मूर्तीस पाहता त्या गळतिच गात्र माझे
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Devdattag
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| Wednesday, January 11, 2006 - 9:07 am: |
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उठे तू, बसे तू कसा धावसे तू आता ख़ोख़ो बास चल ख़ेळू हुतूतू
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Kshipra
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| Thursday, January 12, 2006 - 12:29 am: |
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श्रीराम, परत प्रकार बदल रिती रात डोळ्यातुनी पावसाळे मनाच्या तळाशी खुळे थेंब ओले तुझे शब्द मौनासवे चुंबितांना कसे कोण जाणे उजाडून आले
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Devdattag
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| Thursday, January 12, 2006 - 12:32 am: |
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काल जाम वहावत गेलो..
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Sarang23
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| Thursday, January 12, 2006 - 12:46 am: |
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साक्षात्कार का रे हा
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Devdattag
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| Thursday, January 12, 2006 - 12:47 am: |
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हो ना साक्षात्कारच समज.. का खालचं कारण चालेल? माझ्या विस्कळीत डायरीचं पान पूर्णपणे फाटलं होतं त्याशिवायही डायरी व्यवस्थित राहिल असं उगिचंच वाटल होतं
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Jaaaswand
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| Thursday, January 12, 2006 - 3:23 am: |
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क्षिप्रा मस्त... सही रे श्रीरामा..देवदत्ता देवदत्ता तुझ्या डायरीतल्या पानांना स्मरून जन्मभर टिकवायचा आहे तुझा अबोल शब्दछंद शेवटच्या तरी मैफ़िलीत जमवायचा आहे मालकंस जास्वन्द...
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Prem869
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| Thursday, January 12, 2006 - 4:40 am: |
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देवदत्त आणी जास्वन्द ख़ुपच सुन्दर जुगलबन्दि. लगे रहो...... श्रीराम, सारन्ग मस्तच.....
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Prem869
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| Thursday, January 12, 2006 - 4:52 am: |
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वैभव, तब्बल २६ तास २० मिनिटे लोटली तुझी एकहि कविता आली नाही. पुन्हा एकदा बरसुदे श्रावण सरी.
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Jaaaswand
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| Thursday, January 12, 2006 - 5:34 am: |
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क्षिप्रा..तुझ्या डोळ्यातल्या पावसावरून पुढे.... कित्येक पावसात नाचून झालेय कधी डोळ्यांसमोर.. कधी डोळ्यांच्या आत सुगंध आता माळून घेतलाय कधी फ़ुलावर..कधी कळ्यांच्या आत जास्वन्द...
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Shyamli
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| Thursday, January 12, 2006 - 5:48 am: |
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नसे डायरी ती तुझा आरसा तो साक्शातकार म्हणसी सफल होय हेतु श्यामली
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Shriramb
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| Thursday, January 12, 2006 - 7:38 am: |
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क्षिप्रा, वाह! .... ....
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Seemad
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| Thursday, January 12, 2006 - 9:29 am: |
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डायरी असे मन तुझे डायरीत असे मनातले तुझे साम्भाळ हा थेवा नाव थेवेल मागे तुझे
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Shyamli
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| Thursday, January 12, 2006 - 9:59 am: |
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सीमा तुला ठेवा अस म्हणायचय का? Th= ठ
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Seemad
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| Thursday, January 12, 2006 - 10:57 am: |
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वातीत ही बळ आहे जगण्याची ती कळ आहे क्षणभन्गुर प्रवासास सुरवात करण्याची हीच वेळ आहे
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Seemad
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| Thursday, January 12, 2006 - 11:00 am: |
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ho pan th ne th yet nahiye
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