Jaaaswand
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| Monday, January 09, 2006 - 4:44 am: |
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गुलाब आणि काटे जेव्हा खूप खूप भांडतात समेटाची वाट तेवढी देठावर सोडतात जास्वन्द...
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Jaaaswand
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| Monday, January 09, 2006 - 4:48 am: |
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तुझ्या मनीच्या चांदण्यात मी शोधतो माझा स्वर्ग कित्येक डोह भरून वाहिलेत मी थांबवताना अर्घ्य जास्वन्द...
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Jaaaswand
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| Monday, January 09, 2006 - 4:51 am: |
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गुंतून गुंतून हृदयामधे पडली नाजुकशी गाठ सगळा किनारा स्पर्शून गेली एक गोरटीशी लाट जास्वन्द...
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Megh
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| Monday, January 09, 2006 - 6:11 am: |
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रात्र क्षितिजाकडे झुकवी दिशान्नी बदलावी कुस भारलेल्या तारकानी फ़ेर धरावा चौफ़ेर निशब्द शान्त क्षणाला कवेत घेवुन गारव्याने छेडावा श्वास स्पन्दनाचा जुळावा सुर्…
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Jaaaswand
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| Monday, January 09, 2006 - 11:09 am: |
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पाहून तुला स्वप्नामधे दूर दिवे लागतात साखरझोपेपर्यंत मग माझ्यासवे जळतात जास्वन्द...
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Jaaaswand
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| Monday, January 09, 2006 - 11:29 am: |
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चेहर्यावर माझ्या तू पदर दिलास सोडून भर दुपारी परसामध्ये निशिगंध थकला नाचून जास्वन्द...
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खूप वर्षांनी स्वत:च्या शाळेत किंवा कॉलेजात गेल्यावर गेल्यावर वाटते तसे वाटतेय झुळूकवर. अनोळखी.
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Chinnu
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| Monday, January 09, 2006 - 11:27 pm: |
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ये मित्रा.. किती दिसांनी दिसलीस! पुन्हा एकदा होवुन जावु दे तुझ्या प्रतिभेची बरसात..
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Megh
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| Tuesday, January 10, 2006 - 12:13 am: |
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तुझ्या प्रीतीचे रेशीमधागे असे मला वेधती दुर असुनही नसे दुरता हात गुम्फ़ती हाती
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icanaU ksacaM ksacaM... ha baGa ek p`ya%naÊ idvyaaMva$na saucalaolaa. iTmaiTmaNaaáyaa gaavaidvyaaMcaI AÜZ kXaalaa mauXaaifra. vaRxaatiL psa$na pqaarI paMGa$na Gao AMQaara.
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मुशाफ़िरा तकलादू बेडी नको तुला ह्या मोहदिव्यांची मनास जाळीत पुढे निघावे तमा नसावी तुला तमाची
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laala icaáyaaMcao ]jaaD do}LÊ ZasaLto vaa inaja-na gaÜpur. ivajanaamaQalaI jaunaI samaaQaIÊ Bagna pÜrko ekToca Gar. [qao qaaMbaUnaI kahI xaNaBarÊjaayacaoca puZcyaa TPPyaavar. hoca p`a>naI lao}na ifrtÜÊ tTsqa kÜNaI jaIva mauXaaifr
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Jaaaswand
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| Tuesday, January 10, 2006 - 5:33 am: |
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संघमित्रा एक सुचवावेसे वाटते... कवितेबद्दल नाही... मी जास्वन्दी नाही..जास्वन्द आहे
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Daizy
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| Tuesday, January 10, 2006 - 5:42 am: |
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जास्वद सुंदर अति सुंदर तु नाही... झुळुका ....... तुला raje पद दिले
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spelling va$na tr jaa||svaMd hÜtoya. AsaÜ. ' jaasvaMdcyaa idvyaaMva$na ' caukIcao vaaTlao mhNaUna tsao ilahIlao hÜto. duÉstI kolaI Aaho. vaOBava KUp idvasaaMnaI. mast ro. yao] do kI puZcao. JauLkovar jaugalabaMdIca JaalaI paihjao. ekT\yaanaoca
pnnaasa JauLka ilaihNyaat kahI majaa naahI. AaiNa inanaavaI yaot naahI ka [kDo hllaIÆ
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Ninavi
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| Tuesday, January 10, 2006 - 10:01 am: |
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अय्या, सन्मे, काय योगायोग! मध्यंतरी जरा कामाच्या गडबडीत जमलंच नाही इथे यायला.. आज आले तेव्हा मलाही अगदी अगदी तसंच वाटल होतं... आपल्या शाळेत परत जाताना वाटतं तसं.. आणि नेमक्या तुझ्या पोस्ट्स बघितल्या!!!! मग मात्र आपल्या वर्गातली आपली आवडती मैत्रीण भेटल्यासारखं वाटलं आणि आपोआप सगळ्या जुन्या खाणाखुणा दिसायला लागल्या बघ! ही लिहायला घेतली होती चारोळी म्हणूनच... मुशाफ़िराचा हात धरून... पण वाढत गेली. पण तरी मला वाटतं इथेच राहू दे. 'कविता' म्हणून काही विशेष नाहीये. आणि हो, तुझी लाल चिर्यांचे..' खासच! अगदी typical सन्मी! जास्वंदराव, तुमच्याही सगळ्याच चारोळ्या एकाहून एक सरस बरं का! 'नाव काय, कोठल्या गावचे वाट चालता कुण्या गावची?' नका विचारू, मुशाफ़ीर मी तीच तेव्हढी ओळख माझी कधी खुणावे फांदी हिरवी, लाल चोचीतिल शीळ लाघवी क्षणभर पडते भूल मलाही घरट्याच्या त्या आधाराची एकच क्षण तो, क्षणभर टिकतो, पुन्हा जागते ओढ दिशांची हातावरती जितक्या रेषा, तितक्या वाटा चालायाची...
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Chinnu
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| Tuesday, January 10, 2006 - 10:22 am: |
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वाह निनावी, लयी भारी ग.. सन्मी तुझ्या चरोळ्यांनी पुन्हा जुन्या बहराची आठवण दिलीच. येवु द्या..वैभव, मस्तच.. मी तुम्हाला आता प्रतिक्रीया देणे सोडुन द्यावे म्हणते.. नेहमीच छान लिहिता न!
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Jaaaswand
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| Tuesday, January 10, 2006 - 10:50 am: |
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संघमित्रा..बहुतेक तुम्ही मला वेगळ्या अर्थाने घेतलत.. असो कितीही क्षितिजे कवेत घेतली आकाश अजून लांबच झुकतय मानल नसत मी परंतु वाटतय आता प्रारब्ध चुकतयं जास्वन्द...
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KrMca gaM inanaavaI. AaiNa ivaXaoYa naahI mhNat XaovaTcyaa kDvyaat vaah mhNaayalaa laavalaosaca. mast
vaaTlaM tuJaM yaoNaM tuJyaa kivatosah. AaiNa hÜ ek duÉstI kolaIya. baGa kLto kaÆ icanaU AgadI KrM yaa vaOBavaalaa p`itiËyaa trI iktI Vavyaa hÜ naaÆ jaasvaMda samajalaM ro baabaa. ³Aata malaa vaaTtM yaavar kahI saUcanaa yaoNaar naahIt. ´
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जास्वन्द, फारच छान. निनावी, तुझी कविताही मला खूप आवडली. मेघच्या चारोळीत वेधती असा शब्दप्रयोग आलाय, तो अगदी समर्पक आहे. वेधचा मूळ सन्स्कृत अर्थ कवटाळणे असाच होतो. नेम धरणे किम्वा साधणे हा अर्थ नन्तरचा. आज आपण शब्दवेध, वृत्तवेध वगैरे शब्द वापरतो ते नव्या अर्थाने. बापू.
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अरे बापरे ... चुकुन मुलींच्या शाळेत आल्यासारखं वाटतंय ... सगळ्यांच्याच चारोळ्या मस्त .. धमाल चाललिय ...
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Sarang23
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| Wednesday, January 11, 2006 - 12:01 am: |
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वैभव काहीतरी नवा विषय घ्यावा का? झरा... हा शब्द कोण कसा गुंफतो ते बघायच का?
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सारंग ... एक प्रयत्न ... हा अवचित मी रोमांचित काय जाहलो बरे ...? स्त्रोत तुझ्या हृदयात सखे ... इथे स्पर्शांचे झरे वैभव !!!
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लोचनांत निरांजने स्पर्श वात्सल्याचा झरा कडकड मोडिते बोटे ... वाटे , हा आशिर्वाद खरा वैभव !!!
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Daizy
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| Wednesday, January 11, 2006 - 2:53 am: |
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वा वैभव छानच कडकड मोडिते बोटे... आजीची आठवण आली..
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Jaaaswand
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| Wednesday, January 11, 2006 - 2:58 am: |
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किनारा हवाय झर्याला अंगण तुझे देशील का दिवा-वात माझ्यावर सोड सांग निरांजन होशील का जास्वन्द...
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Jaaaswand
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| Wednesday, January 11, 2006 - 3:03 am: |
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झिरपला कुठे प्रवाह कळले नाही झर्याला उंबर्यावरची दोन पैंजणे दिसली नाहीत घराला जास्वन्द...
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सही चाललेय. क झरा खळाळे ओसाडीवर? कुठली जिगिषा जागे? जणु पळे जिवाच्या आकांताने, कोण पाठीशी लागे? ती पहा रूपसी भरते घागर, ओणवून त्याच्या देहावर. तरी कसा हा अजब मुशाफिर, ना पहातो वळून मागे.
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Jaaaswand
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| Wednesday, January 11, 2006 - 3:54 am: |
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वळून मागे बघतो जेव्हा काय चुकले किती बरोबर काही भेटी वाहून गेल्या काही तरंगल्या त्या झर्यावर जास्वन्द...
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Prem869
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| Wednesday, January 11, 2006 - 3:59 am: |
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Pratek Charoli Sundar Ani Apratim
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Shyamli
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| Wednesday, January 11, 2006 - 4:18 am: |
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वा!जास्वन्दा वा! दीवा वात सान्ग निरान्जन मस्तच!
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Shyamli
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| Wednesday, January 11, 2006 - 4:28 am: |
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जस्वन्द तुमच्या निरान्जनासाठि पुढच कडव सुचलय नीरान्जन मि झाले तरी ज्योत ती तु होशिल का? ज्योतिर्मय ह्या सन्ध्याकाळि सान्ग तु माझा होशिल का? श्यामलि
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Moodi
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| Wednesday, January 11, 2006 - 4:31 am: |
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तुमची झुळुक ची जुगल बंदी मस्त रंगतेय. श्यामली मी हा दीर्घ काढ mee असा. र्हस्व काढु नकोस. तो दीर्घच आहे, अन रागवू नकोस सांगीतले म्हणुन. 
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Devdattag
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| Wednesday, January 11, 2006 - 4:45 am: |
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बळंच.. नसे जिगिषा ना मोह कुणाचा वाहणे कर्म जाणी झरा सर्व प्राशिति ना रोष कुणाचा कर्मयोगी हाच ख्ररा
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Jaaaswand
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| Wednesday, January 11, 2006 - 4:48 am: |
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सांगायचेच म्हणशील तर त्याला अजून वेळ आहे थोडे आणखी जळू म्हणतो वातीत अजून तेल आहे जास्वन्द...
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