Moodi
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| | Tuesday, January 03, 2006 - 8:04 am: |
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जास्वंद असे लिही. jaaswa.nd ओठांची ओंजळ. oThaa.nchee o.njaL .
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Jaaaswand
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| | Tuesday, January 03, 2006 - 8:06 am: |
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मर्यादा गाडल्या सागराने जगात नुसता ओरडा होता प्राय्:श्चित्त म्हणून भरतीला तोच किनारा कोरडा होता जास्वन्द...
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Jaaaswand
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| | Tuesday, January 03, 2006 - 8:10 am: |
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धन्यवाद मूडी.... आता अजून एक..... :-) चालताना तुझ्या पायाखाली मी धरल्या होत्या ओंजळी काय सांगू कधी कशी उमटून आली रांगोळी जास्वन्द...
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Jaaaswand
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| | Tuesday, January 03, 2006 - 8:19 am: |
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खोट्यापेक्षा माझ्या लेखी खर्याचीच किंमत होती जगलोही असतो अजून थोडासा पण स्वप्नांचीच किल्लत होती जास्वन्द...
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Moodi
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| | Tuesday, January 03, 2006 - 8:25 am: |
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वा सुरेखच, फार छान शब्दार्थ अन भावार्थ. पण किल्लत म्हणजे रे काय? कमतरता का?
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Jaaaswand
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| | Tuesday, January 03, 2006 - 8:40 am: |
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हो मूडी...बरोबर किल्लत म्हणजे कमतरता.... अभाव जास्वन्द...
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Jaaaswand
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| | Tuesday, January 03, 2006 - 8:50 am: |
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तिच्या माझ्या मधे आता बोलणे फ़ारसे होत नाही आकाश झाले मोकळे तरी आता आरसे गात नाहीत जास्वन्द...
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Jaaaswand
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| | Tuesday, January 03, 2006 - 8:55 am: |
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फ़िटतासुद्धा फ़िटणार नाही असे कधी देणे असते नदीतल्या चुकार गोट्यावरही बुद्धाचेच लेणे असते जास्वन्द...
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Jaaaswand
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| | Tuesday, January 03, 2006 - 10:36 am: |
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शब्द होऊन उरलो अन स्तब्ध होऊन घुमलो मी लब्ध होऊन मरणानंतर अब्द अब्द जगलो मी जास्वन्द...
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Chinnu
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| | Tuesday, January 03, 2006 - 1:01 pm: |
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वाह जास्वंदा! जियो!! अब्द म्हणजे काय? वरील सर्व चारोळ्या छान आहेत.
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वाव जास्वद एकदम छान सुंदर आहेत सर्व चारोळ्या अजुन येउदेत
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Jaaaswand
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| | Wednesday, January 04, 2006 - 3:02 am: |
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कधी कधी माझ्याकडेही येतो श्रीं चा खलिता शब्दांत तेव्हा उमटत असते माझ्या मनीची कविता जास्वन्द...
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Jaaaswand
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| | Wednesday, January 04, 2006 - 4:43 am: |
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दोन क्षण भांडताना दारात मी पाहीले होते छळणार मला माहित होते घरात मी घेतले होते ज़ास्वन्द...
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Paragkan
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| | Wednesday, January 04, 2006 - 11:14 am: |
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तुझा माझा असा कोणता गे जिव्हाळा? तुझी याद येताच मी माझ्या निराळा
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Chinnu
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| | Wednesday, January 04, 2006 - 5:49 pm: |
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जास्वंद तुमचे भांडकुदळ क्षण आवडलेत हो! पी. के. तुम्हाला बुधवारी नक्की कशाची.. सॉरी.. कुणाची याद आली!!
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Devdattag
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| | Thursday, January 05, 2006 - 2:24 am: |
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स्वप्नातल्या कळ्यांना वास्तवाचे काटे वास्तवातले फूल आता स्वप्नातले वाटे
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वाहवा !!! देवदत्त ... काय विरोधाभास ... सुंदर .. जास्वंद ... वाट पाहतोय ...
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Jaaaswand
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| | Thursday, January 05, 2006 - 3:01 am: |
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धन्यवाद मित्रांनो, सोडताना नदीत पहिला मी नेमका विझलो होतो हाय..करंटेपण नशिबी स्वप्नीसुद्धा निजलो होतो जास्वन्द...
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Jaaaswand
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| | Thursday, January 05, 2006 - 3:04 am: |
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शरदाच्या रातीने अलगद गोष्ट मला सांगितली चंद्राशी भांडून उल्का विवराला जाऊन बिलगली जास्वन्द...
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Jaaaswand
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| | Thursday, January 05, 2006 - 3:11 am: |
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उन्हातल्या बर्फ़ासारखा आपला होता संबंध थेंबांना त्या भेटलो जेव्हा दाटून आला मृदगंध जास्वन्द...
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अगगगगगगगगगग !!! ए अरे कुठल्या मुलीने वाचलं तर " वाचेल " का ती ?
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Jaaaswand
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| | Thursday, January 05, 2006 - 3:40 am: |
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वैभवा... आता हे मी काय सांगू...? मुलींनाच विचारायला पाहिजे... जास्वन्द...
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Jaaaswand
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| | Thursday, January 05, 2006 - 3:50 am: |
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तू सांग मला ह्यात माझे काय चुकले आहे तिच्या डोळ्यांमधे झेपावून शब्द माझे भिजले आहेत जास्वन्द...
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Devdattag
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| | Thursday, January 05, 2006 - 3:55 am: |
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राजे.. तुम्हाला सम्राटपद बक्षिस
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Devdattag
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| | Thursday, January 05, 2006 - 4:10 am: |
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तू सांग मला ह्यात तिचे काय चुकले आहे तुझ्या शब्दांमूळे वेडावून डोळे तिचे भिजले आहेत
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Sarang23
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| | Thursday, January 05, 2006 - 4:15 am: |
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आहे आणि आहेत...? गडबड... तूच सांग मला यात कुणाचे काय चुकले आहे माझ्या मात्र वहीवरले अक्षर अक्षर भीजले आहे दिर्घ भी तिव्रतादर्शक आहे...
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Jaaaswand
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| | Thursday, January 05, 2006 - 4:34 am: |
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देवदत्ता...सारंगा... जवाब नही...एकदम खासच रे... जास्वन्द...
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Jaaaswand
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| | Thursday, January 05, 2006 - 4:49 am: |
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कधी कधी होत असं पाऊल वाट चुकत डोळ्यातल पाणी तेव्हा शब्द होऊन सुकतं जास्वन्द...
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Jaaaswand
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| | Thursday, January 05, 2006 - 6:08 am: |
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हसून हसून अश्रूंचे आता झाले आहेत मोती मिठीतल्या तुझ्या श्वासांची फ़क्त गाणी आहेत ओठी जास्वन्द...
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Jaaaswand
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| | Thursday, January 05, 2006 - 10:00 am: |
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काळे गोरे दोनच रंग चित्र माझे भरले आहे तिचे मात्र जग त्यांच्यात त्यांच्याविनाच मावले आहे जास्वन्द...
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Shyamli
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| | Thursday, January 05, 2006 - 10:23 am: |
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रन्ग दोन चित्रे दोन काव्य दोन, भावनाहि दोन तुझे जग तिथे आहे, माझे जग ईथे आहे, पण साम्य मात्र एक आहे तुहि इथे आणि मिहि इथेच आहे हितगुजवर राग नाहिना आला जास्वन्दा सॉरि
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जास्वंद...... वेड लागेल हो हसून हसून अश्रूंचे आता झाले आहेत मोती ......तिच्या डोळ्यांमधे झेपावून शब्द माझे भिजले आहेत छान......
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श्यामली.... अगदी लगेच प्रतिसाद अस्तो वाटत....
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Jaaaswand
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| | Thursday, January 05, 2006 - 10:54 am: |
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धन्यवाद श्यामली आणि मुग्धा... आणि हो राग नाही आला.... ठरवूनसुद्धा मनोमन मला राग येत नाही वर्षे झाली डोळे उघडून अजून जाग येत नाही जास्वन्द...
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Pama
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| | Thursday, January 05, 2006 - 11:06 am: |
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जास्वंद, फारच सुंदर.. प्रत्येक चरोळी खासच आहे!!
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