हं सारंगच म्हणायचं होतं रे , तंद्रीत होतो
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Sarang23
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| Wednesday, December 07, 2005 - 6:34 am: |
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ब्रम्हानंदी टाळी? सृजनाची प्रक्रिया का रे वैभव?
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भाऊसाहेबान्ची माफ़ी मागून एक धाडस करतोय म्रुत्यो तू आम्हाला असे खुणावू नको अवेळचे असे मुळीच बोलावू नको अंमळ आमुचे अजुनी जगायचे राहिले तिच्या हातून गंगाजल प्यायचे राहिले
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नाकारते अशी की नकार न वाटावा होकार असा की स्वीकार न वाटावा भेटते राजरोस पण भेटते अशी स्पर्श करण्याचा अविचार न जागावा
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उगाच त्या स्वर्गाचे दार कशाला वाजवा अप्सरान्ची ह्या जगी मुळीच ना वानवा भूलोक अवघे झाले मोहमायेचे केन्द्र मैफ़िलीत आमच्या शेजारी बसतो देवेन्द्र
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तिच्या विभ्रमानी आम्हास खलास केले तिच्या संयमाने खचित उदास केले कोण म्हणतो विभ्रमाना प्रतिसाद देतो आम्ही तिच्या संयमाला देखील दाद देतो आम्ही
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शेकडो बागा हजारो फ़ुलान्चे ताटवे एक फ़ूल होते जे अजून मज आठवे आठवणीत आज त्या फ़ुलास चुम्बुन आलो माझ्याही नकळत मीच फ़ुलून आलो
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ह्या जीवनाची दुर्दशा त्रस्त करेना झाली मदिरेची नशा आम्हा मस्त करेना झाली नजर टाळुनी तिचे पदरास सावरणे पुरुन उरते आम्हा त्या धुन्द नशेत वावरणे
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एकेकाळी आमचाही जीव होता जडलेला तिच्यासाठी एक एक श्वास होता अडलेला आता तिने ते हातावरचे नाव खोडले आहे श्वास घेतो आम्ही ... जगणे सोडले आहे
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आक्रमिला मार्ग आम्ही नेहमीच हसता हसता सोसाट्याचे वारे सदैव सतावित असता वादळे आम्हापुढे सारीच ठरली निष्फ़ळ जीव घेवुनी गेली उरातली एक वावटळ
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असे मुळीच नाही की मोह जागला नाही पण कधीच कोठे इतका जीव लागला नाही इतरान्सारखे प्रेमात मन हे रमले नाही जीवनावरही मरेस्तोवर .. मरणे जमले नाही
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Ninavi
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| Wednesday, December 07, 2005 - 9:40 am: |
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वैभव, सहीच! म्हणजे कवितांच्या बीबींवरती तुझी सही' झाल्ये!! आता आम्ही पामरांनी कुठे लिहायच?
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Devdattag
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| Wednesday, December 07, 2005 - 10:10 am: |
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पाहिले तिजला असे कि पहिले कधिना पाहिले पाहिले तिने असे कि आम्हि सर्वस्व तिजला वाहिले
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Devdattag
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| Wednesday, December 07, 2005 - 10:29 am: |
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मृत्यु आला दारी अमुच्या म्हन्टले पाहुणचार करु किती तो ही मग ओशाळुन म्हणाला सामोपचार करू किती
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Paragkan
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| Wednesday, December 07, 2005 - 11:10 am: |
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झकास रे वैभव! भाऊसाहेब पाटणकरांची आठवण झाली.
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Ninavi
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| Wednesday, December 07, 2005 - 12:51 pm: |
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एक वेडा पीर दिसतो त्या तिथे त्या तरुतळी मागणे निःशब्द, पण देतो दुवा मनमोकळी सहज तो निःसंग त्याचा मज हवासा वाटतो धूपदाणीतील सौरभ रोमरोमी दाटतो...
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Suniti_in
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| Wednesday, December 07, 2005 - 1:22 pm: |
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झकास चाललय वैभव, निनावी, देवदत्त! वैभव सहीच रे. वेगळ्या वाटल्या बघ या वेळेस चारोळ्या.
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Chinnu
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| Wednesday, December 07, 2005 - 1:22 pm: |
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छान चारोळी निनावि वैभव, तुमचे फ़ुलुन येणे आवडले.
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Ninavi
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| Wednesday, December 07, 2005 - 1:45 pm: |
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ठेव जपुनी स्वर, परी जे बोललो विसरून जा नेस माझा स्पर्श, मी जे वागलो विसरून जा द्यायची होती फुले, पण हात माझे बोचरे गंध घे माळून, सारे दंश तू विसरून जा
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Devdattag
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| Wednesday, December 07, 2005 - 2:02 pm: |
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मिलनाच्या रात्री आज लैला मजनुचे ध्यान का रंगलेल्या मैफलीत जोगियाचे गान का
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Pama
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| Wednesday, December 07, 2005 - 2:09 pm: |
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वैभव, निनावी,देवदत्त.. तुमच्या वरच्य सगळ्या चारोळ्या वाचून मी काव्य संन्यास घ्यायच ठरवलय..
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Pama
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| Wednesday, December 07, 2005 - 2:37 pm: |
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माझा १५ मिनिटांचा काव्य संन्यास सपला.. त्या पेक्षा जास्त तुमच्या नशीबात नाही.. माहीत आहे जागामधे कुणी कुणाचा नाही हर एक जण भार स्वताचाच वाही मृत्यूने तरी का मला शरणागत घ्यावे माझ्या जाणिवांचे प्रेत त्याने का न्यावे..
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Chinnu
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| Wednesday, December 07, 2005 - 2:49 pm: |
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जाणिवांचे प्रेत.. वा वा पमा. छान! देवदत्त, तुमची मृत्युवरची चारोळी छान आहे.
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Devdattag
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| Wednesday, December 07, 2005 - 3:16 pm: |
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पमा.. good one चिन्नु..मृत्युवर चारोळि केली असलि तरि अगदी तुमची वगैरे नको.. आम्ही अजुन गद्धेच आहोत
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Chinnu
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| Wednesday, December 07, 2005 - 3:31 pm: |
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देवदत्त, तुम्ही गद्दे तर आम्हाला तर ती पण सोय नुरली!
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Paragkan
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| Wednesday, December 07, 2005 - 5:21 pm: |
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Ninavi, १२.५१ आणि १.४५ च्या चारोळ्या (?) खास आहेत!
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Ninavi
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| Wednesday, December 07, 2005 - 7:44 pm: |
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धन्यवाद, परागकण. मी वैभवचं बघून शेर लिहायचा प्रयत्न करून पाहिला जरा. पमे, तुझ्या काव्यसंन्यासाचं वाचून हाय खाल्ली होती. संपला याचं हायसं वाटलं. 
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Urmilaq
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| Wednesday, December 07, 2005 - 7:46 pm: |
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वैभवजी, काय म्हणू.. शबद्च सुचत नाहीत.. पमा, निनावि, देव्दत्त, खुप सुरेख.. चालु द्या
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वैभवा, कोणत्या शब्दात दाद देऊ तुझ्या या चारोळ्यांना.. निःशब्द दाद आहे बघ माझी.. भावना समजुन घे रे मित्रा
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Dhruv1
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| Wednesday, December 07, 2005 - 11:49 pm: |
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layaBaar nadIcaa jaatÜ vaLuna kuzo Alavaar manaat KÜlavar hÜtÜ duÁKacaa vaar AnaIvaar
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Dhruv1
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| Wednesday, December 07, 2005 - 11:51 pm: |
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duÁK tuJao jartarI marNaacaI doto saMqaa trI )dyatLaXaI }rtÜ AazvaNaIMcaa jaqaa
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Bee
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| Wednesday, December 07, 2005 - 11:55 pm: |
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वैभव, आज प्रतिक्रिया द्यावीशी वाटली. चारोळ्या आवडल्यात! हीच शैली कायम ठेवलीस तर आणखी छान लिहू शकशील.
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Dhruv1
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| Wednesday, December 07, 2005 - 11:56 pm: |
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pavalaaMnaa savayaIcaI vahIvaaT nasaavaI idXaaMcaI vaavaTL idXaahIna nasaavaI
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Dhruv1
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| Wednesday, December 07, 2005 - 11:58 pm: |
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pavalaaMnaahI hÜtÜ savayaIcaa rsta idXaahIna vaaTaMvar mau@kamaacyaa vaosaa
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वैभव, ध्रुव, पमा.... छान आहेत सगळ्या कविता. आगे बढो! बापू
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