Shabd
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| Monday, December 05, 2005 - 9:41 am: |
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तु मला भेटल्यावर मी माझा राहत नाही तु माझीच रहा मी दुसरे काही मागत नाही
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Gautami
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| Monday, December 05, 2005 - 10:59 am: |
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तू असताना सगळं कसं नविन वाटतं तू असल्यावर तुझंच भान असतं तू नसताना सगळं कसं सुन्न वाटतं तू नसल्यावर माझंच भान हरवतं
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Devdattag
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| Monday, December 05, 2005 - 11:08 am: |
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जेंव्हा निळंशार आकाश पृथ्विला आपल्या कवेत घेतं तेंव्हा उगवतीचि लालिमा येणार्याची चाहुल देतं
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Ninavi
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| Monday, December 05, 2005 - 12:57 pm: |
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वा, देवदत्त, छान कल्पना!!! 
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Jo_s
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| Tuesday, December 06, 2005 - 1:10 am: |
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आकाशात लालिमा सुर्य क्षितिजा जवळ चित्रावरून कसं ओळखावं सांज आहे की सकाळ
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Sarang23
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| Tuesday, December 06, 2005 - 4:24 am: |
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सुधीर, गडबड वाटते आहे या चारोळीमध्ये.
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तसा टाकाउच ठरलो कुणीही स्वीकारले नाही मी देखील स्वतःला मनापासून पुकारले नाही
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Sarang23
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| Tuesday, December 06, 2005 - 5:40 am: |
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अहाहा...! या पेक्षा टाकाउपणाच अजुन सुंदर वर्णन ते काय... मी देखिल स्वतःला... सही आहे वैभव.
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Sarang23
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| Tuesday, December 06, 2005 - 5:48 am: |
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शाश्वत आणि अशाश्वत अशा दोन्ही डगरींवर मला चालाव लागत इच्छा नसुनही मग मला खोट बोलाव लागत
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Jo_s
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| Tuesday, December 06, 2005 - 5:54 am: |
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Sarang गडबड वाटत्ये पण एखाद्या चित्रा वरुन कस ओळखता येईल तो सुर्यास्त आहे की सुर्योदय?
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सागर... धन्यवाद तुझ्या कवितेवरच्या suggestion वर विचार करतोय चारोळी मस्त आहे, दुसरया ओळीत " मला " शब्द हवाच आहे का ? खाली संदर्भ आलाय की ... काढला तर बान्धेसूद होईल का बघ ना विचार करून
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शेवटी चार क्षणाचेच सखे आपले भेटणे झाले दोन समजून घेण्यात दोन समजावण्यात गेले
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हे अजब वेड आहे मला तुझ्या विश्वात जगायचं जुनी पत्रं चाळायची नव्याने प्रेमात पडायचं
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Sarang23
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| Tuesday, December 06, 2005 - 6:40 am: |
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आईशप्पथ काही च्या काही. वैभ जबरी आहेत दोन्हीही. पुन्हा पुन्हा वाचतोय. दुसर्या ओळीतुन जर मला शब्द काढला तर ते सर्वसमावेशक वाक्य वाटत(म्हणजे सगळ्यांनाच चालाव लागत) आणि मग शेवटी तो अर्थ येत नाही. बघ बर बरोबर आहे का? सुधीर, गडबड मी यमकाबद्दल बोललो. फक्त चार ओळीच असल्यामुळे एक प्रकारची नादमयता आवश्यक असते अस मला वाटत. म्हणुनच वैभवने मला मला हा शब्द काढुन टाकायला सांगीतला, पण तरी ती चारोळी नीट वाचता येते(नादमयता) आणि चित्रावरुन पण सकाळ सन्ध्याकाळ ओळखता येवु शकते. जशी कविता तशीच चित्रकला, मग दोनीही फ़सण्याचा संभव आहेच
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Sarang23
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| Tuesday, December 06, 2005 - 6:43 am: |
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ही जी सगळी गुपित असतात ना त्यांच ही एक गुपित असत दुसया कुण्णाला कळु द्यायच नाही अस म्हणुन सगळ्यांनाच सांगीतलेल असत
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मी केव्हाचा थाम्बुन होतो वाटेत कुणी आढळलंच नाही तू कधी वाट बदलली होतीस मला मुळी कळलंच नाही
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सागर पटलं .... एक हासू दोन आसू कोण फ़सवे कोण विश्वासू?
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काही असे काही तसे लिहून जाते लेखणी लेवून रंग शाईचा व्यथा होतसे देखणी
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वैभव.. तुझ्या कविताच पुस्तक वगैरे असल्यास प्लीज कळव. अज्ञाना बद्दल सोरी...
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ज़ोशी तुम्ही फ़ार सुन्दर लिहिल आहे तिनही एक्दम अप्रतिम अस्मिता
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Pama
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| Tuesday, December 06, 2005 - 11:06 am: |
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सारन्ग छान लिहीतोस.. hi वैभव.. सुरेख आहेत सगळ्याच.. पाठ फेरलीस माझ्याकडे मी पाऊले वळवून नेली तुला कळण्या आधीच ती वाट वाहून गेली
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Ninavi
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| Tuesday, December 06, 2005 - 11:37 am: |
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लाख गुन्हे माफ तुला, एकदा प्रेम केलंस म्हणून माझं म्हटलंय दुःखसुद्धा केवळ तू दिलंस म्हणून...
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Ninavi
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| Tuesday, December 06, 2005 - 11:42 am: |
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सगळा राग, सगळी सल एका क्षणात जाईल पळून एवढंच कर माझ्यासाठी, एकदा बघ मागे वळून...
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Ninavi
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| Tuesday, December 06, 2005 - 11:49 am: |
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तुला या वाटा इथून दुरावलेल्या दिसतायत? मला तर त्या काट्यांना सरावलेल्या दिसतायत...
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Pama
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| Tuesday, December 06, 2005 - 11:53 am: |
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hi निनावी, कशी आहेस? शेवटच एकदा तुझ्यासाठी पाहिल मागे वळून वाटल होत माझ्यासाठी येशील काट्यांतूनही चालून
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Ninavi
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| Tuesday, December 06, 2005 - 11:54 am: |
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इतक्यातच दमलास? पुढे यायचा बेत नाही? पत्रं वाचतोस पुन्हा पुन्हा... माणूस वाचता येत नाही?
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Ninavi
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| Tuesday, December 06, 2005 - 11:58 am: |
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Hi पमा! कुठे होतीस? काट्याची खोड काट्यानीच मोडायची पण तू दिलीस सल, ती कश्याने काढायची?
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Pama
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| Tuesday, December 06, 2005 - 12:10 pm: |
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होती ग इथेच, अभ्यास करायचा प्रयत्न चलला होता जरा!! सगळ्या जखमा आपसूक, काळ भरून काढेल तू खपल्या काढत राहिलास तर, दोघांतील अंतर मात्र वाढेल..
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Nalini
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| Tuesday, December 06, 2005 - 12:38 pm: |
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मी घातलेली फुंकरही तुला सल वाटते घावांवर घाव घालणे कसे तुला पटते?
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Ninavi
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| Tuesday, December 06, 2005 - 12:50 pm: |
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वा, नलिनी! सहीच. तेव्हा म्हणाला, 'तुझ्या सार्या सजवीन फुलांनी वाटा..' आणि आता स्वतःच झालाय सगळ्यात मोठा काटा...
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Pama
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| Tuesday, December 06, 2005 - 1:00 pm: |
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कागदी फुलांतून गंध कधी येणार नाही सुकलेल्या जखमांचे व्रण कधी जाणार नाही.
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Chinnu
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| Tuesday, December 06, 2005 - 8:18 pm: |
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रात्र भर चंद्र रेंगाळला उलगडली जुईची पाकळी न पाकळी उषेने उधळला लालिमा हळुच कांकणान्नी केली चुगली!
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Badbadi
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| Tuesday, December 06, 2005 - 10:59 pm: |
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मस्त वाटल आज्ची झुळूक वाचून वैभव, निनावी, पमा सगळेच खूप छान लिहित आहात.. चिनू, pcking सुरू झाल का? कधी येत आहेस?
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Sarang23
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| Tuesday, December 06, 2005 - 11:03 pm: |
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पमा धन्यवाद वैभव, मी सारंग... तू सागर म्हणुन दुसर्या कोणाला म्हणतोयस का? मला वाटत तुला सारंगच म्हणायच असाव. ती: निशब्द प्रेम दोन्हीकडे सारखच असत सोबत आणि विरहात एकसारखीच वळण तो: प्रिये दोहोत फरक खुपच असतो सोबत चंदनी ओलावा आणि विरह अकारण जळण
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Chinnu
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| Tuesday, December 06, 2005 - 11:35 pm: |
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कसल pcking बडी? तु मला दुसरे कुणी समजुन टाकलास वाटते मेसेज.
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