ha ha...Milya, aata Peshwe tula sodnaar naheet...!! Bhumigat ho kuthetari 
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Peshawa
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| Monday, November 21, 2005 - 5:34 pm: |
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imalyaa idvaa Gao ro² kuiNa jaala ka saaMgaala ka barLNaayaa- (a imalyaa Aata tir pkvaU nakÜ saayaa-ca (a kÜT\yaa jaunyaa AaiQaca ihtgauja varit ri_ Ôar vaaZila ivaDMbanaaMcaI imaih tuJyaa kaih panao caaLlaI pahuina tuJyaa p`itBaolaa imalyaa Xvaasa maaJaahI kÜMD\laa GaaNa sauwa varmaola [tka ³ivaDMbanaacaa´ baIbaI tU barbaTlaa saaMBaaLunaI Aamacyaa manaalaa AaimhhI Gaotlao jarasao³ca´ ivaDMbanao kiXa Asaaiva (acao maa~ punha tu igarva QaDo saaMgaala ka %yaa imalyaalaa saÜD ha kbaaDIpNaa naak " kurvaaLayaa " vaapr Aata Émaala navaa
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Giriraj
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| Monday, November 21, 2005 - 10:44 pm: |
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एका विडंबनयुद्धाची सुरवात... ज़बरी रे पोरांनो!
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tumhi tar kamal keli bhahu?
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Milya
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| Tuesday, November 22, 2005 - 12:57 am: |
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श्रीमंत सरकार मुजरा तुम्हाला 
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Yog
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| Tuesday, November 22, 2005 - 2:39 am: |
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Milya, maujaro kQaIpasaUna krayalaa laagalaasa laoka...Æ ~d
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Milya
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| Tuesday, November 22, 2005 - 3:07 am: |
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अरे योग s/w मध्ये सगळे करावे लागते बाबा. मुजरा, मैफ़ल अधिक माहितीसाठी भेटा समया... 
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Mmkarpe
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| Tuesday, November 22, 2005 - 11:53 am: |
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प्रतिक्षा आजुबाजुला पहिलं असत्य, अविश्वास आणि अंधाराच्या गर्तेत सत्य आणि विश्वास गटान्गळ्या खात आहेत रक्षकच बनलेत भक्षक मानुसकीच्या मानगुटिवर बसुन अमानुषतेचा तक्षक तिच्या नरडिचा घोट घेतो आहे अधर्माने धर्मावर असत्याने सत्यावर पापाने पुण्यावर विजय मिळविला आहे तरिही? हे युगंधरा! आणखी किती वर्षे वाट पहावी लागणार आहे
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खी...खी..खी.. आता इथे पण विडंबन बी बी चालु झाला का? मिल्या,पेशवा,दोघांचीही विडंबने महान पेशवा,तुझे हे विडंबन चक्क कळले रे.. किती चावशील त्या बिचार्या मिल्याला मिल्या,शिरमंतांची अशी थट्टा करू नये.. तुला तडीपार करतील बरे पुण्यातुन
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Jo_s
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| Tuesday, November 22, 2005 - 10:28 pm: |
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हा मिल्याचा गनीमी कावा हे. . . .
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Sarang23
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| Tuesday, November 22, 2005 - 11:46 pm: |
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कर्पे, कवी कशाची वाट बघतो आहे जरा विस्तृत करता का? कवितेचा उद्देश तोच असावा पण तो उधृत होत नाही असे वाटते. एक कडव वाढवू शकता. कविता छान अहे.
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Shriramb
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| Wednesday, November 23, 2005 - 4:12 am: |
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गारवा गारठून गेली हवा थंडावले चराचर वारा वाहे मूळूमूळू घाले बोचरी फुंकर धुके धूसर धूसर रस्ता लांबोडा, रिकामा भेगाळल्या ओठांवर गार दवाचा मुलामा ठणकते जुनी ठेच जरी जखम भरली नाही मन धजावत काळी काढाया खपली ऊन येता कोवळाले वाफाळून जाय दव रस्ता पुन्हा गजबजे कोरड्याचा आणे आव ~ श्रीराम
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श्रीराम फारच सुरेख. तुझे शब्द नेहमिच लयीत येतात. कोरड्याचा आणे आव ...... वाह
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मुशाफ़िर.. शेवटी मी एकटा नि सोबतीला एक श्वास कोण देशी चाललेला शेवटाचा हा प्रवास सावलीने ऐनवेळी साथ आहे सोडलेली पावलाना शून्यहृदयी वाट आहे जोडलेली ऊन जाई आरपार.. देह उरला फ़क्त काच तडकण्यासाठीच आहे चाललेला हा प्रवास भाग आहे तुडविणे ही भावनान्ची तप्त रेती पोळते, शोषुन घेते ओल सार्या जीवनाची आठवान्च्या ओन्जळीचे नीर होई र्हास र्हास बरसणे विसरावयाला लावणारा हा प्रवास दूर नाही दूरवर जो भासलेला मज निवारा भग्नतेचा दूत होवुन साद घाली हा सहारा नाही तृष्णा नाही उरला मृगजळाचा भास भास सत्य अंतिम स्पष्टरित्या सान्गणारा हा प्रवास शेवटी मी एकटा नि सोबतीला एक श्वास वैभव...
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Lampan
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| Wednesday, November 23, 2005 - 5:50 am: |
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Cana ... pNa iKÙ krNaarI..... eKadI AanaMdI mausaaiÔracaI kivata ilahI kI
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Giriraj
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| Wednesday, November 23, 2005 - 6:45 am: |
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श्रीराम,सुंदर... ठणकते जुनी ठेच जरी जखम भरली नाही मन धजावत काळी काढाया खपली मस्तच अगदी! वैभवा,सही रे!
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श्रीराम ..वैभव ...सहीच ... पण वैभव.. .एवढे खिन्न नको.....प्लीज ...
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Ninavi
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| Wednesday, November 23, 2005 - 9:53 am: |
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vaOBavaÊ mauXaaiÔr sahIca. pNa evaZ ekT vaaTayalaa kaya Jaala Æ AamhI AahÜt kI [qao ² 
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Ninavi
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| Wednesday, November 23, 2005 - 9:54 am: |
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AroÊ hI navaIna Ôa^nT caI kaya BaanagaD Aaho Æ sagaLo vaaprtayat kI ² malaa ksaM kLlaM naahI Æ
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Mmkarpe
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| Wednesday, November 23, 2005 - 11:16 am: |
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सारंग.....धन्यवाद कवी धर्म आणि सत्याच्या संस्थापनेची वाट पाहत आहे. युगंधर म्हनजे श्रीक्रुष्णाचे गितेतील विराट रूप त्यामुळे उल्लेख नव्हता केला.तुम्ही सुचवल्या प्रमाणे शेवट्च्या कड्व्यात खालिल प्रमाने बदल केल्यास चालेल का? तरीही? हे युगंधरा! सत्य आणि धर्म संस्थापनेची आणखी किती वर्षे वाट पहावी लागणार आहे.
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Ninavi
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| Wednesday, November 23, 2005 - 2:53 pm: |
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ivarh ... kaya sa#yaa dXaa maaJaIÊ kXaI GaatlaIsa BaUla kuzo Qaavao mana maaJao .. kuzo pDto pa}la pusao majalaa AMgaNa naahI saDa saarvaNa AaiNa iktIk idsaaMt naahI ilaMplaolaI caUla paNaÜz\yaava$naI yaota malaa hasatÜ kdMba Gaagar irkamaI maaJaIÊ nayanaaMt Baro jala naahI saajaÊ naa XaRngaarÊ naahI saaQaI vaoNaIfNaI ivaskTo isaMdUr AaiNa maÜkLoca ho kuMtla Apra~I GaalaI vaara XaIL vaoLUcyaa banaat ra~Bar jaagato maI tuJaI XaÜQaIt caahUla XaUnya saaro tuJyaavaINa tbakat pMcap`aNa irta manaacaa gaaBaaraÊ irto dohacao do}L .....
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सुन्दर निनावि.....शेवट्च्या दोन ओळी म्हण्जे.............
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EaIramaÊ vaOBava AaiNa inanaaiva kivata KUp saundr AahotÊ KUp AavaDlyaa
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Pama
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| Wednesday, November 23, 2005 - 4:24 pm: |
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श्रीराम छानच आहे कविता. वैभव, मुशाफिर एकदम मस्त!! निनावी.. विरह सुरेख जमलीय. शब्द खूप झान वापरले आहेस.
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Ninavi
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| Wednesday, November 23, 2005 - 6:35 pm: |
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QanyavaadÊ dÜs%sa.. ... ...

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Sarang23
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| Wednesday, November 23, 2005 - 10:47 pm: |
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कर्पे, आता शेवट बरोबर वाटतो. नीनावी, वैभव, श्रीराम सुरेख.
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Sarang23
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| Wednesday, November 23, 2005 - 11:21 pm: |
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पारिजात ऋणानुबंध जरासा वेगळाच माझा नि त्या पारिजातकाचा लहानपणापासुनचा सोबती माझा मित्र जन्मोजन्मीचा तसा मी आता फ़ार वैतागलोय आणि विसरही पडला होता त्याचा बर झाल कटकट गेली रोज त्याची फ़ुल कोणी वेचा? गोष्ट फ़ार पुर्वीची तेंव्हा जुन घर होत वाटायच हाच खरा मित्र माझा याच नि माझ जुन नात जुन्या घरावरही खुप प्रेम माझ पण पैशालाच जास्त महत्व असत प्रेमाला देखिल पैशाच वेश्टन पैशापुढे प्रेमाच अस्तित्व नसत मग उरते अखंड तडजोड समाधानाला असंख्य वाक्य स्फुरतात 'नाही तरी निर्जिव वस्तुच ती' मागे फ़क्त आठवणीच उरतात एक घाव काय अन अनेक काय सगळ्यासाठी एकच शिक्षा 'तो पारिजात तरी रहावा...' अशी का मागावी मी भिक्षा भीक मागुन प्रेम मिळत नाही ही आणखी एक तडजोड आयुष्याभर चालुच असते आपल्या स्वप्नांची तोडफ़ोड तेंव्हापासुन तो गेला आता कशाचच काही वाटत नाही कुंडीतल्या रोपाला बघुन त्याच्या आठवणीही दाटत नाही पण तो फ़िरुन येणारच होता शेवटी हीच खरी मैत्री कारण कुंडीत त्याच रोप दिसल शेवटची कुंडी फ़ोडताना रात्री.
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सारंग सुन्दर..ती वही scan करून पाठव ना मेलवर... मस्त कलेक्शन होइल
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बसस्टॉप.. ओठातुनी अचानक आली सुरेख धून बहुधा चळावलेली ती ही तुला बघून गाण्यात जेथे जेथे उल्लेखले मी प्रेम पाहिलेस तेथे तेथे माझ्याकडे वळून मुद्दाम सोडली मी अर्ध्यात एक ओळ आली शीळेवरी ती नकळत तुझ्याकडून शब्दास हलके हलके रक्तिम रंग आला हमखास त्याचवेळी गेला पदर पडून होता असा नजारा रोमान्च आणणारा तितक्यात कार एक आली बरे कुठून? थाटात सोडिला तू बसस्टॉप तो बिचारा श्यान्डल मनावरी ते टॉक टॉक आदळून 'बावळट' म्हणोनी अलगद केलीस एक खूण बिलगुन प्रियकरा त्या गेलीस तू निघून वैभव...
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Sarang23
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| Thursday, November 24, 2005 - 2:39 am: |
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Vaibhav good one. पण कुठली वही रे? आणि scan करुन टाकायची म्हणजे एकदम वाचुन मोकळ होण्याचा विचार आहे का? just kidding...
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Shabd
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| Thursday, November 24, 2005 - 6:30 am: |
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tu aayushyatun nighun gelis he ase ka ghadale manavirudhach mmazya ayushyache fase padale
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Mmkarpe
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| Thursday, November 24, 2005 - 6:31 am: |
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दिवेलागणिच्या वेळी मन का कातर व्हावे... तुझ्या आठवनींनी माझ्या गावी यावे... हृदयात दडपल्या भावनांना मिळावा उमाळा माझ्या नकळतही डोळ्यांनी भरुन यावे..... जडावलेल्या पापण्यांनी तुझे चित्र अंधुक व्हावे तुझ्या स्पर्शाच्या अनुभुतीने मनाने उगी मोहरावे.... इथे तुला साहतो मी तुही मला सहावे इथे तुला जगवितो मी तुही मला जगवावे...
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vaOBavaÊsaarMgaÊinanaavaIÊkrpo... sahI sau$ Aaho
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Sarang23
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| Thursday, November 24, 2005 - 10:40 pm: |
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क्या बात है कर्पे भौ. जबरी जमली आहे
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Sarang23
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| Friday, November 25, 2005 - 1:15 am: |
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फ़ुल वागतात अशी गेल्या काळासारखी एकदा कोमेजल्यावर परत येत नाहीत... माहीत आहे मला पण मी कुठे आहे गेल्या दिवसासारखा इतिहासजमा आणि म्हणुनच तू मला सहजच म्हणालीस का? 'तू फ़ुलासारखा कोमल नाहीस रे... कठोर आहेस फ़ार' डोळ्यात पाणी दाटल तरी तुला कळल नाही कारण मी देहभ्रमी आणि तू इतिहासजमा...
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