Mankya
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| Thursday, January 11, 2007 - 11:58 am: |
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कुठे गेले हे लोक ? भकास ... भकास वाटतय .....! माणिक !
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Shyamli
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| Thursday, January 11, 2007 - 1:02 pm: |
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हल्ली काही बाही ऐकु येत मला म्हणजे बघ हं..... न वाजणारा फोन, दारावर तू न मारलेली थाप आणि चुकुनच का होईना, माझ्यासाठी चुकलेला तुझ्या काळजाचा ठोकाही खरच, हल्ली काही बाही ऐकु येत मला श्यामली!!!
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Mankya
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| Thursday, January 11, 2007 - 1:06 pm: |
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" माझ्यासाठी चुकलेला तुझ्या काळजाचा ठोकाही .." सुन्दर ! माणिक !
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Daad
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| Thursday, January 11, 2007 - 7:10 pm: |
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आहा, श्यामली. कविता तर आवडलीच पण त्यातला सहज भाव जास्त भिडला - 'म्हणजे बघ हं..... '. सुंदरच! गणेशजी- 'वेडे' छान आहे! 'हल्लीच कळ्लं मला गुलाबफुलांच्या काट्यांना खुप दु:खं असतात म्हणून! '
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Sarang23
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| Thursday, January 11, 2007 - 11:13 pm: |
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वा! श्यामली, खासच!
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Meenu
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| Thursday, January 11, 2007 - 11:27 pm: |
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श्यामली मस्त गं ..
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श्यामली छोटीशी गोड कविता.
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श्यामली ... मस्त आहे कविता ..
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फुलराणी.. तू शुभ्र चांदण्यासवे धाडिशी निशिगंधाची लक्ष फुले मन गंधित माझे आठवणींच्या हिंदोळ्यावर झुले पदोपदी चाहूल तुझी अन क्षणोक्षणी आभास तुझा प्राजक्त अंगणी सळसळतो आजही स्मरूनी श्वास तुझा तू सहज चुंबुनी आसकळ्यांचे श्वास मोकळे केले अन इथे मनावर सडा टाकिती प्राजक्ताची लक्ष फुले.. तू अंतर इतके किती लीलया पार करुनी येशी मम अस्तित्वाला गंध पुन्हा हमखास देऊनी जाशी मी तुझा जुना सुकलेला गजरा स्पर्शुन घेतो जरा झरताच आसवे पुन्हा उमलती जाईची ती लक्ष फुले.. हे तुझे नि माझे कोमल नाते जपले या सुमनांनी ही फुले सांगती, ' तुझीच होती कधी कुणी फुलराणी..'
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वैभव, " अंतर इतके किती लीलया पार करुनी येशी मम अस्तित्वाला गंध पुन्हा हमखास देऊनी जाशी " मला वाटतं ह्या ओळींनी किती लीलय मला तिची भेट करून दिली! खुप खुप आवड्ली कविता! गणेश(समीप)
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Sarang23
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| Friday, January 12, 2007 - 1:54 am: |
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मी तुझा जुना सुकलेला गजरा स्पर्शुन घेतो जरा झरताच आसवे पुन्हा उमलती जाईची ती लक्ष फुले.. अ प्र ती म!!! काय दाद द्यावी?
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Jayavi
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| Friday, January 12, 2007 - 3:26 am: |
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श्यामली........ फ़ारच सुरेख! तुझ्या शब्दांमधे जबरदस्त ताकद आहे गं! अगदी कमी शब्दातूनसुद्धा अप्रतिम मोकळी होतेस वैभव... एक कडक सॅल्यूट
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श्यामली वा ग छानच आहे छोटी गोड कविता... वैभव काय दाद द्यावी..!!!
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वैभव अप्रतिम! दाद कोणत्या शब्दात द्यावी तेच कळत नाही.
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Niru_kul
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| Friday, January 12, 2007 - 4:53 am: |
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तुजविना अपूर्ण मी..... शब्द मी.... काव्य तू.... प्रज्वल मी.... दिव्य तू.... संदर्भ मी.... अर्थ तू.... चंद्र मी.... सूर्य तू.... भरती मी.... पौर्णिमा तू.... आकाश मी.... निलीमा तू.... साम मी.... अथर्व तु.... प्रेम मी.... सौंदर्य तू.... बेधुंद मी.... तन्मय तू.... दग्ध मी.... उज्वल तू.... सूर मी.... संगीत तू.... नाद मी.... तल्लीन तू.... आयुष्य मी.... जन्म तू.... मर्त्य मी.... अमृत तू.... तुजविना अपूर्ण मी.... मजविनाही संपूर्ण तू....
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Mankya
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| Friday, January 12, 2007 - 5:17 am: |
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तुजविना अपूर्ण मी.... मजविनाही संपूर्ण तू.... आवडल हो ...! माणिक !
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Meenu
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| Friday, January 12, 2007 - 7:54 am: |
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हिरवाई गार गार वाहे वारा, सर सर येती धारा .. चिंब भिजुनिया जाई, मग देवाजीची धरा .. रोम रोम आनंदाने, मग पालवुन येई .. दिसे चहु अंगाने गं, नवी नवी हिरवाई .. बापा हिरव्या रंगाच्या, अगणित छटा झाल्या .. वाटे बघुन कुणाला, नव्या नवती की आल्या ..
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Mankya
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| Friday, January 12, 2007 - 8:00 am: |
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" हिरवाई "... छान रन्गवलीयेस मीनू ! पण " नव्या नवती की आल्या .. " ह्याचा अर्थ नाही कळत मला. सान्गशील प्लिज. माणिक !
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Meenu
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| Friday, January 12, 2007 - 8:03 am: |
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नव्या नवती हा शब्द मी ईथे नव्या नवर्या या अर्थानं वापरलाय .. तसा नसेल तर बदलायला लागेल चु. भु. दे. घे.
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Meenu
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| Friday, January 12, 2007 - 8:06 am: |
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भिती सुप्त ज्वालामुखीची, त्याच्या उद्रेकाची .. भितीच वाटते. मनात काही साठवायची .. भावनांच्या उद्रेकाची, भितीच वाटते. फार पुर्वी एकदा, सुप्त ज्वालामुखीच्या स्फोटात त्या ज्वालामुखीसह सारं काही उद्ध्वस्त झालं होतं म्हणे ..!!
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