Gharuanna
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| Friday, December 29, 2006 - 8:36 am: |
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Gharuanna
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| Friday, December 29, 2006 - 8:39 am: |
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\dev2{yaa chitravarun kaahee kavitaa suchateela kaa re paheelacha prayatna Ahe sahajacha }
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Gharuanna
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| Friday, December 29, 2006 - 8:40 am: |
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या चित्रास्वरुन काही कविता सुचतील का रे पहीलाच प्रयत्न आहे सहजच
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R_joshi
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| Saturday, December 30, 2006 - 4:12 am: |
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मी प्रयत्न करते. मनोहर निसर्गाच्या कुशीत लपंडाव सांजवेळ खेळते अलगद आलेल्या झुळुकेने मनहि येथे सुखावते निरव शांतता स्तब्ध करी मना बघ जरा येथे आभाळ धरणीसाठी झुकते संगीत येथे पक्ष्यांचे साद घाली जगण्यासाठी मनहि बघ ह्या साद देते नवजीवनाचे गीत गाते बहराचा आनंद जगण्याचि ऊर्मि तेथे आपुले घरकुल वसते प्रिति
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R_joshi
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| Saturday, December 30, 2006 - 4:14 am: |
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चित्रावरुन कविता नाहि जमलि तरच कवितेवरुन चित्र काढुन पाठवा
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Mankya
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| Monday, January 08, 2007 - 10:31 am: |
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आता जमेल अस वाटतय..... ! माणिक !
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Gajanan1
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| Monday, January 08, 2007 - 12:17 pm: |
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'ये शाम मस्तानी' मी म्हणालो तिला. 'सान्ज ये गोकुळी' तिन साद दिला. 'सन्धिकाळी या अशा' माझे मन शहारते. 'दिस नकळत जाई' तिलाही आकळते. 'मावळत्या दिनकरा' साक्ष आता ठेवतो! ' An Evening in Paris ' रोजच अनुभवतो!!
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Mankya
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| Monday, January 08, 2007 - 12:21 pm: |
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ये हुइ ना बात.... चित्र सत्कारणी लागला रे गजानन.... माणिक !
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अरे हे चित्र पूर्वी किरूने टाकले होतं. तेव्हाही काहीतरी लिहिले होतं मी ...
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सूर्यास्त सांजवेळ ही अशी, अन् मिठीत गारवा सरणार्या सूर्याला, पक्ष्यांनो थांबवा आला तो एकटाच, एकटाच चालला किरणांच्या भाषेतून, शब्दाविण बोलला मेघांच्या लाटांतून, नारंगी घाटातून यापुढचा मार्ग आता, पृथ्वीच्या पोटातून जाताना डोळ्यातून, सांडतोच एक थेंब म्हणती मग सर्वलोक, आले रे चंद्रबिंब ~ प्रसाद
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Shyamli
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| Tuesday, January 09, 2007 - 6:44 am: |
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आहा.... प्रसाद >>> जाताना डोळ्यातून, सांडतोच एक थेंब म्हणती मग सर्वलोक, आले रे चंद्रबिंब
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प्रसाद,आज जोरात आहेस तू अगदी असाच वेळ काढत जा
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Kiru
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| Tuesday, January 09, 2007 - 7:11 am: |
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प्रसाद सुंदर. शेवटच्या कडव्यातली कल्पना तर अप्रतिम. याच चित्रावरची तुझी आधीची कविता आहे रे माझ्याकडे आता जरा बाहेर ये अज्ञातवासातून.. लिहीत जा. 
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R_joshi
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| Tuesday, January 09, 2007 - 7:21 am: |
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प्रसाद खरच छान कविता आहे. असाच प्रतिसाद देत जा कवितेंना
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Mankya
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| Tuesday, January 09, 2007 - 8:39 am: |
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प्रसाद... एक नम्बर यार.... ! माणिक
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मेघांच्या लाटांतून, नारंगी घाटातून यापुढचा मार्ग आता, पृथ्वीच्या पोटातून>>>>. खुप सुंदर... मस्त आहे कविता.
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Badbadi
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| Tuesday, January 09, 2007 - 9:21 am: |
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प्रसाद, सुंदर... 1 day search मध्ये तुझं नाव बघून आले या बीबी वर आणि येणे सार्थ झाले... अज्ञातवासाबद्दल माझे किरु ला अनुमोदन!!!
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मनापासून धन्यवाद मंडळी !!
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प्रसाद .... अप्रतिम रे. आणि ती आधीची पण वाचायला आवडेल. मेल करशील का?
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Sarang23
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| Wednesday, January 10, 2007 - 6:02 am: |
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प्रसाद मलाही मेलशील रे... आणि किरू, हा माझाही प्रयत्न... पण गझल झाली म्हणून तिकडे टाकली. संधिकाल
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