Santu
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| Sunday, January 28, 2007 - 3:23 am: |
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हे आहेत सह्याद्रिचे कडे 
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Suvikask
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| Monday, January 29, 2007 - 5:25 am: |
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शिव शंभु राजा ईथे जन्मला कडी कपारीतुन सह्यगिरिच्या खेळला, लढला, जिंकला येथेच त्याने काढीला खानाचा कोथळा करुनी अवघड विक्रम नवा ईतिहास घडविला स्वराज्याचा भगवा झेंडा सह्याद्रिवर फडकविला
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Nisha_v
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| Monday, January 29, 2007 - 5:35 am: |
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वा!!! वा!!! सुचेता ताई मस्तंच करुनी अवघड विक्रम नवा ईतिहास घडविला स्वराज्याचा भगवा झेंडा सह्याद्रिवर फडकविला व्वा!!!
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हे आहेत सह्याद्रिचे कडे आतूर आजही ऐकण्या घुमनारे पोवाडे विश्वास या वेड्यानां... इथेले कवी... लिहतील आजही असे पोवाडे! गणेश(समीप)
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Mankya
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| Friday, February 02, 2007 - 5:21 am: |
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बर्याच अर्थाचे धनी आहे हे चित्र ! मनाची उद्विग्नावस्था, राग, निश्चय असं संमिश्र अवस्था दिसतात मला यामध्ये, बाकि आता नंबर आणि कौशल्यही तुमचे वर्णन करायला, अर्थात काव्यरुपात ! लोपा, टाकलं बघ गं ! माणिक !
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Jo_s
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| Sunday, February 04, 2007 - 11:25 pm: |
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माणिक कसली भयंकर चित्रटाकतोस, कुठून आणतोस ही... जरा हळूवार लिहीतायेईल अशी टाक रामा नशिबी येई वनवास रावण कपटी पळवे सीतेस कौरव जिंकती् पांडवांस द्यूती द्रौपदी नशीबी येई अनीती काळ रात्र ग्रासे जेव्हा जगाला आणि धर्म जाई जेव्हा लयाला जनतेस वेठीस धरती सत्ता धनिक शोशती परद्रव्य मत्ता जेव्हा अन्याय सीमा गाठती प्रक्षोभ उद्रेक तेव्हाच होती पाकळ्या होती ज्वाळा अकाली आणि फुलांच्या होती मशाली सुधीर
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Vasant_20
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| Monday, February 05, 2007 - 2:58 am: |
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अप्रतिम!!!!! दुसरा शब्दच नाही.
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Mankya
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| Monday, February 05, 2007 - 3:07 am: |
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सुधीर ... कविता मला खुप आवडेश ! चित्रांच म्हणशील तर मला हटके प्रकार आवडतो ... आणि चित्रकवितेसाठीही ते पोषकच आहे की ! माणिक !
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Mankya
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| Monday, February 05, 2007 - 7:55 am: |
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नुसतच बरोबर चाललो तर ती सोबत होत नाही कर्तव्य म्हणुन केलं तर ती मदत होत नाही ! शेवटी आधार लागतोच मित्रांनो कुणाचातरी ! माणिक !
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माणिक एकाहुन एक चित्र (कुठुन आणतोस रे..!!!) सुधिर कविता छानच..
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Jo_s
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| Monday, February 05, 2007 - 11:37 pm: |
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वसंत, माणिक, लोपा धन्यवाद माणिक हे चित्रही खासच आहे
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Sherloc
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| Tuesday, February 06, 2007 - 3:04 am: |
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नागपुर साहित्य सम्मेलनात कवी प्रदीप निफाडकर यांनी वाचलेली गझल "प्रत्येक ठिकाणी भेटते मला माझी मुलगी, प्रत्येक मुलीत भेटते मला माझी मुलगी" (अशी काहीशी) इथे टाकायला आवडली असती.
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Suvikask
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| Thursday, February 08, 2007 - 1:32 am: |
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असाच राहो हातात हात कधी ना सुटो जन्माची साथ परस्परांच्या आधारावरच चालु भविष्याची वाट
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Santu
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| Saturday, February 10, 2007 - 6:22 am: |
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हा पहा सिंधुदुर्ग 
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Seemadhav
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| Thursday, February 15, 2007 - 9:46 am: |
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हि रक्त फुलान्चि ज्वाळा प्रत्येक जीव हा जळतो काळोख दाटतो तरीही अन्धार जगतसे जो तो पाखरे पाहती दूरूनी हा खेळ नवा फुलण्याचा इथे जरा विसावे वाटे पण ठाव नव्हे नित्याचा कळले कधी न कोणा हा जन्म फुकाची गेला हे जीवन फुलण्याआधी नभी गंध उडूनी गेला फुलल्याची जाणीव होते तोवर देह पाकळी झडते मग हळहळ वाटे क्षणभर अन मुक्त पाखरू उडते हि रक्त फुलान्चि ज्वाळा प्रत्येक पाकळी निखळते काळोख भेदूनी तेव्हा जीवज्योत क्षणी उजळते..... माधव
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Saurabh
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| Thursday, February 15, 2007 - 5:11 pm: |
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बहोत खूब! .. ..
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