Devdattag
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| Monday, December 25, 2006 - 11:58 pm: |
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आज सखीच्या वागण्याचा कुछ औरही अंदाज आहे हाय खलास आम्ही, बोले हा फक्त आगाज आहे
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Devdattag
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| Tuesday, December 26, 2006 - 12:11 am: |
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ऐकले आगळे नसे आमुचे हे वागणे शिकवले मदनास त्यांनी रात्रीस आता जागणे
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Poojas
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| Tuesday, December 26, 2006 - 12:29 am: |
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अंदाज वागण्याचा माझा मलाही नाही.. म्हटलेस तू जरीही.. ही और बात नाही.. सहजी तुला स्मरावे.. अन साद तू ही द्यावी.. मग आज का अबोला..की.... पुन्हा मनात नाही..???
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Jayavi
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| Tuesday, December 26, 2006 - 3:37 am: |
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क्या बात है देवा, पूजा...... एकदम सही जा रहे हो
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ऊशीरा आलीस तू हे बर नाही वाट्ले अजुनही बघ तुला वेळेच मह्त्व नाही पट्ले
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>>>मग आज का अबोला.. अबोला नव्हता सखे मन अडकले होते.. नको त्या कल्पनेने ओठ थबकले होते..
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Shyamli
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| Tuesday, December 26, 2006 - 8:21 am: |
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वा देवा,पूजा, दीप सही चाललय
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Heartwork
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| Tuesday, December 26, 2006 - 5:01 pm: |
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Aaj punhaa waaTewar oLakhichaa Gulamohar Ek junaa pravaasee Thabakalaa kshaNabhar
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पूजा.......पुन्हा मनात नाही... एकदम छान देवा.. मस्तच.... झुळुक बहरुदे अशीच.....
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Devdattag
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| Tuesday, December 26, 2006 - 10:36 pm: |
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पूजा आवडलं.. दीप खासच रे..
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देवा आज सखीच्या... खासच. पुजा too good . अनिरुध्द छान.
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R_joshi
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| Wednesday, December 27, 2006 - 2:19 am: |
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देवा,दिप,पुजा छानच गणेशजी सुरवात उत्तम वेळेचे बंधन मी पाळले होते सात पाऊल तुझ्यासोबत चालले होते वेळच ही अशी अघटित आली असह्य मी पुरति घायाळ झाले होते प्रिति
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Deep_tush
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| Wednesday, December 27, 2006 - 3:57 am: |
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नमस्कार मित्रानो मि हितगुजचा नियमित वाचक आहे. चारोळ्या व कविता ख़ुपच छान असतात.
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R_joshi
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| Wednesday, December 27, 2006 - 4:47 am: |
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मी आज जराशी थांबले जुन्याच त्या वळणांसाठी निभवु न शकलेल्या तुझ्या माझ्या नात्यासाठी प्रिति दीप्_तुश झुळुकेवर चारोळ्या लिहु हि शकता आपण. आम्हि नक्किच वाचु.
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Deep_tush
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| Wednesday, December 27, 2006 - 5:50 am: |
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वळ्ण ते जुनच होत नात मात्र तुटलेल........ विचार क नाही केलास अंतर का सुटलेल....... पहिलाच प्रयत्न आहे साम्भाळून घ्या. तुशार...
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"कुणी आपले असणे यातच जीवणाचे सार आहे नुसतेच मज़ेत निघूण जाणे धरणीलाच भार आहे !"
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सगळं कळत असुनही वळतच नसलेलं आणि ओळख असुनही अनोळखीपणाच सोंग घेतलेलं रुप
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तुला आपलं करुनही आपल्यात सदैव दरी तुझा मुक प्रश्न मला हैराण करी रुप
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सगळेच जर आपले असतील तर जगण्याला काय अर्थ आहे अनोळखी लोकांना आपलसं करण्यात खरी प्रयत्नांची शर्थ आहे रुप
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आठवन तुझी आली की रात्र थांबुन राहते... नकळत मग पहाट येउन दारात ताटकळत उभी असते...
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