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Sarang23
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| Monday, November 20, 2006 - 11:57 pm: |
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मृ, वैभव, श्यामली, पराग, दाद... धन्यवाद! वैभवा... ! आठवलं रे... बाकी मी आधीच म्हटलं ते ही छान आहे म्हणून!
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Deodharmv
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| Tuesday, November 21, 2006 - 12:35 am: |
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सारन्ग चान हज़ल आहे...शेवतचि ओल नहि उमजलि.....पनत्या चिकार ज़ाल्या कन्दिल(????) न्या म्हनालो
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ती जाताना 'येते' म्हणून गेली ती जाताना 'येते' म्हणून गेली अन जगण्याचे कारण बनून गेली! म्हटली मजला 'मनात काही नाही' पण जाताना मागे बघून गेली! तिच्या खुणेची चंद्रकोर ही गाली वार नखाचा हलके करून गेली... घडे क्षणांचे रिते असे केले की देहसुखाचा प्याला भरून गेली कळते हा बगिचा का फुलला माझा काल म्हणे ती दारावरून गेली! तसे पाहता पाउस तितका नव्हता कळे न का ती इतकी भिजून गेली... तिच्या भोवती गंध अता दरवळतो (सहवासचे अत्तर टिपून गेली!)
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खास !!!! मस्तच रे
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Meenu
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| Tuesday, November 21, 2006 - 2:00 am: |
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प्रसाद अप्रतिम रे ... वा सुंदर प्रत्येक शेर
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Shyamli
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| Tuesday, November 21, 2006 - 2:16 am: |
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ती जाताना 'येते' म्हणून गेली अन जगण्याचे कारण बनून गेली! >> वाह......
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Psg
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| Tuesday, November 21, 2006 - 3:18 am: |
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प्रसाद, हंऽऽऽऽऽ! मस्तच! वा!
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Sarang23
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| Tuesday, November 21, 2006 - 3:37 am: |
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कळते हा बगिचा का फुलला माझा काल म्हणे ती दारावरून गेली! तसे पाहता पाउस तितका नव्हता कळे न का ती इतकी भिजून गेली... वा!!! बहोत खूब...
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Daad
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| Tuesday, November 21, 2006 - 4:13 am: |
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प्रसाद, व्वा!.. छानच आहेत सगळ्याच ओळी!! 'घडे क्षणांचे रिते....' आह!!
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प्रसाद.. प्रत्येक ओळ केवळ अप्रतिम!!
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