R_joshi
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| Tuesday, August 29, 2006 - 3:01 am: |
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लटक हसणं, लटक रुसणं हिच तर प्रेमाची खरी गंमत आहे यावाचुन का जीवनाला रंगत आहे प्रिति
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आपलं आपलं एक विश्व ... थोडं जुनं .. थोडं नवं मी,तू आणि हे शब्द बस ! अजून काय हवं ?
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R_joshi
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| Tuesday, August 29, 2006 - 3:06 am: |
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शब्द हे शब्दच असतात मला सुचले तसे ते तुलाही सुचतात त्या शब्दांच्या मागिल भावना मात्र किती भिन्न असतात प्रिति
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मी असं एका क्षणात सगळं सांगायचं कसं थेट ? युगायुगांची प्रतीक्षा अन ही अशी चुटपुटती भेट
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असं शब्दांवाचून बोलणं पुन्हा जमेल .. न जमेल कोर्या कागदांचं म्हणणं तुला कळेल .. न कळेल
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" इतकं काय त्यात ... बघ मी विसरलोसुध्दा " तुझ्या डोळ्यांच्या डोहात पुन्हा उतरलो बहुधा
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सखी , तुझे ओंजळीत येणे जरी खरोखर खरेच होते तरी क्षणांचे घडे अजूनी रितेच होते ... रितेच होते
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Meenu
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| Tuesday, August 29, 2006 - 3:45 am: |
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मृगजळ मी अन तु ही मृगजळ कसले वाहणे, कसली खळखळ भरली वाटे तरी रहाते रीतीच ओंजळ ........ रीतीच ओंजळ ....
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Smi_dod
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| Tuesday, August 29, 2006 - 3:45 am: |
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वा वैभवा सही!!!! छानच जमलेय
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Meenu
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| Tuesday, August 29, 2006 - 3:48 am: |
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विसरलो म्हणतोस खरं पण .. काहीसुद्धा विसरत नाही डोळ्यांच्या डोहात वेदना उगाच दिसत नाही
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धन्यवाद स्मि ... चालले अस्तित्व माझे कण धुळीचे होवुनी जीवना आताच घे ... आताच घे रे भेटुनी
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R_joshi
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| Tuesday, August 29, 2006 - 3:50 am: |
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को-या कागदाच मन मी जवळुन अनुभवते शब्दाच्या संगतिशिवाय ते किती एकटे भासते प्रिति
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Smi_dod
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| Tuesday, August 29, 2006 - 3:51 am: |
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मीनु छानच लिहितेस तु नेहमी
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Ninavi
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| Tuesday, August 29, 2006 - 3:54 am: |
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होते असेच, असते अन हेच व्हायचे क्षण दोन क्षण जगून पुन्हा दूर जायचे श्वासांत श्वास थोडे पेरायचे पुन्हा अन आसवांत माझ्या तूही भिजायचे..
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Devdattag
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| Tuesday, August 29, 2006 - 3:56 am: |
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भेटण्या तुजला सख्या रे मी येइन श्रावण बनूनी मग भेट अपुली सदैव राहिल मृदगंध बनूनी
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सुखी कोण , दु:खी कोण उत्तर शोधायला जाऊ नका चेहरा बोलेल तुम्हाला हवे ते डोळ्यांत डोकावुन पाहू नका
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R_joshi
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| Tuesday, August 29, 2006 - 4:00 am: |
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तु साद अशी घातलिस मन माझे माझे न राहिले प्रेमाच्या अंतरंगातील रंग चोहिकडे विखुरले प्रिति
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Meenu
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| Tuesday, August 29, 2006 - 4:53 am: |
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स्मि धन्यवाद .. .. ..
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डोळ्यात डोकावून पाहू नका...सही वैभव
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उन्मत्त रात्र रेशमी विख़रुन पाश न्हायली पाशात दंश लपवुनी दरवळली सायली मोहात मात असुनही मज पराभुत व्हायचे उधळू नको मोहरंग मज अजुनही जगायचे धुंद रवी
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