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योग, सुरेख रे... अशी माणसे म्हणजे आपल्या आयुष्यभराचा दुर्मीळ खजिना असतो.. शेवट मात्र मनाला चटका लावुन गेला रे
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Abhi_
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| Saturday, July 08, 2006 - 12:46 am: |
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केवळ अप्रतीम .. .. !!
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ववि चे किन्वा कुठल्याही अव्यावसायिक (ना नफा या दृष्टीने) गोष्टीन्चे सन्योजक - कार्यकर्ते देखिल अशाच "अनी" किन्वा "सार्वजनिक काका" या सदरात मोडणारे असणार ना? हॅट्स ऑफ टू देम! एऽऽ, आणि त्या योगला कसलही डोळ्यातुन पाणी वगैरे अपेक्षित नसावे, तो फक्त "आपल्यातल्याच" किन्वा "इकडे तिकडे दिसु शकणार्या" "अनीन्चा" शोध घेतो हे! त्यान्ना जाग करतो हे! (होप, ही पोस्ट वादग्रस्त नसावि)
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Jayavi
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| Saturday, July 08, 2006 - 2:38 am: |
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योग......... खूप छान! अशीही माणसं असतात रे!
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Kandapohe
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| Saturday, July 08, 2006 - 10:58 pm: |
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योग, मस्त लिहीले आहेस. असतात अशी माणसे. पण सापडायला योग लागतो. मला तुझ्यातही अन्या जाणवला, कारण परोपकारी लोक असतात पण त्याची जाणीव होउन ते व्यक्त करणारे खूप कमी असतात.
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Aj_onnet
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| Tuesday, July 25, 2006 - 9:41 am: |
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योग, सही लिहलयस! अप्रतिम!
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