Krishnag
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| Thursday, June 01, 2006 - 5:28 am: |
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अभी, अप्रतीम लिहलयस!! आणि प्रामाणिक!! 
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Savani
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| Thursday, June 01, 2006 - 9:33 am: |
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अभी, छान प्रामाणिकपणे लिहिलं आहेस. कधीतरी असं अजाणतेपणाने घडून जातं आणि मग नंतर बोचत राहतं खरचं आपण असं वागायला हवं होतं का?
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Asami
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| Thursday, June 01, 2006 - 10:55 am: |
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एकदम प्रांजळ लिखाण. विचारात पाडून जाते
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Maitreyee
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| Thursday, June 01, 2006 - 11:05 am: |
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अभी, खूप छान लिहिलयस. शेवट पण सही.
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Champak
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| Thursday, June 01, 2006 - 1:49 pm: |
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अभी, खूप छान लिहिलयस! Your bolg is also nice. I dont know how to give feedback on blog!
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Mavla
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| Thursday, June 01, 2006 - 2:06 pm: |
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अभि अगदिच सुंदर आनि विचार करायल लावणारी कथा मांडलिस. सुंदरच
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Sashal
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| Thursday, June 01, 2006 - 2:09 pm: |
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छान लिहीलंय ..
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Sandu
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| Thursday, June 01, 2006 - 2:40 pm: |
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आभि, छान लिहीला आहेस. "बळजबरीने चिटकनारी लोक मला अजिबात अवडत नाहित " हे माझे नेहमीचे वाक्य किती चुकीचे आहे हे तु आज मला दाख़वलेस....त्रिवार धन्यवाद!!
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Seema_
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| Thursday, June 01, 2006 - 3:28 pm: |
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वा ! मस्त लिहिलय .... .....
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Shyamli
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| Thursday, June 01, 2006 - 3:31 pm: |
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बळजबरीने चिटकनारी लोक मला अजिबात अवडत नाहित>>> अभि.....धन्यवाद........तू बर्याच लोकांना विचार करायाला लावलास...
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अभि , मस्त लिहिलं आहेस ......
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Bee
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| Friday, June 02, 2006 - 12:22 am: |
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अभिजीत, कुणाला टाळण्याची ही बोच सर्वांनाच लागत नाही. पण तुझा हा लेख वाचून आपणही कुणाला कधी टाळाटाळ केली आहे हे आठवले असेल आणि सर्वांनाच ही बोच आत्ता कुठेशी लागली असेल एकदम छान लिहिलस. तुझा ब्लाॅगचा पत्ता देतोस का?
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अभि, चांगल लिहिलयस. पा. टि. वि. मधली ' एक ' ची तुकडी आठवली आणि असेच काही ' मन्या ' डोळ्यासमोर उभे राहिले.
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Arun
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| Friday, June 02, 2006 - 12:35 am: |
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मस्त लिहिलं आहेस रे ........
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Deemdu
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| Friday, June 02, 2006 - 1:24 am: |
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अभी_ छान लिहील आहेस रे. अगदी आरसाच ठेवलास समोर
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अभी_ अतिशय टचिंग रे..
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Jo_s
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| Friday, June 02, 2006 - 4:36 am: |
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अभि एकदम टचींग सुधीर
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R_joshi
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| Friday, June 02, 2006 - 5:14 am: |
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अभि खुपच सुन्दर लीले आहेस. मनाला अगदि हेलावुन टाकत तुमचे लिखाण.
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मस्तच लिहिले आहे... एकदम प्रामाणिक... साध्या सरळ शब्दात मांडलंय सगळं
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Abhi_ छान मांडलेय ललित.
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अभी, सुंदर... !!!.. .. .. .. .. .. ..
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Aj_onnet
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| Friday, June 02, 2006 - 9:40 am: |
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अभी, छान लिहलयस एकदम! प्रामाणिक अन मनाला विचार करायला लावणारं
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Abhi_
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| Saturday, June 03, 2006 - 2:34 am: |
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मंडळी प्रतिसादाबद्दल धन्यवाद!! ह्या लेखाने जर अंतर्मुख होऊन कुणाला विचार करायला लावले असेल तर त्याचे सर्व श्रेय 'मन्या'लाच जाते. पुनःश्च धन्यवाद!!
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अभी, सगळ्यांच्या अभिप्रायाला माझा दुजोरा!!! तुझी लिहिण्याची शैली, मनाला भिडणारा अन अंतरमुख करणारा विषय, सगळंच केवळ अप्रतीम! मनात एक विचार आला, आणि इथे लिहावसं वाटलं...मन्याचा फोन आलाच कधी तर काय म्हणशील त्याला ह्या ललिताच्या अनुशंगानं?
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