Shyamli
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| Thursday, April 13, 2006 - 10:52 am: |
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नुकताच तर आला बहर त्यात वसंताचा कहर साहवेना जगाला झाड वयात आलेले श्यामली!!! जया
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Shonoo
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| Thursday, April 13, 2006 - 11:12 am: |
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आली वसंताची हाक कानी नवथर वारा घोटाळतो पानी जरी लावलेले आजीने तरी पुन्हा नव्याने झाड वयात आलेले
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Suniti_in
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| Thursday, April 13, 2006 - 1:30 pm: |
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खट्याळ वा-याच्या स्पर्शाने बेधुंद मनाच्या लहरीने पाण्याच्या अमृत गोडव्याने झाड वयात आलेले
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Suniti_in
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| Thursday, April 13, 2006 - 1:40 pm: |
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नव्या पालवीच्या ओढीने लाघट वा-याच्या शिळेने गारवा लेऊन आलेले झाड वयात आलेले श्यामाले आले बघ. फार दिवसांनी चक्कर टाकली बघ. छान लिहिताय सगळे!!
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Kandapohe
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| Thursday, April 13, 2006 - 11:14 pm: |
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नवोन्मलीत तारुण्याच्या भाराने वाकलेले प्राजक्ताने दाटलेले झाड वयात आलेले... जमतंय का? 
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मनातच हसणारे तारुण्याने सळसळणारे स्पर्शाने लाजणारे झाड वयात आलेले
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छानच लिहितात आहेत रे तुम्ही पण हे असे नाही का 'मै सोलह बरस की' style ने किती महीने वर्षे सोलहच बरस की वर्षानु वर्षे झाड असेच वयात येत राहो!!
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Shyamli
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| Friday, April 14, 2006 - 12:29 am: |
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पुरे आता.... म्हातारं करु नका झाडाला दृष्टावेल झाड.... नवीन येउ दे काहितरी...
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Krishnag
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| Friday, April 14, 2006 - 12:30 am: |
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शिशिराच्या पानगळीला मागे विसरून आलेले चैत्राच्या पालवीने नवा साज ल्यालेले कोकिळेच्या कुजनाने अंगोपांगी बहरलेले फुला फळांना मिरवीत झाड वयात आलेले
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Jo_s
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| Friday, April 14, 2006 - 1:12 am: |
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नवे झाड, नवि पालवी बहर नवा, नव्या बोली नवा साज पाहून बिलगल्या वृक्षांना नव्या वेली पक्षांचे पार्श्व संगीत मेघांची मखमली पाहून सारी नवलाई नजर माझी हरखून गेली
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Dilippwr
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| Friday, April 14, 2006 - 1:45 am: |
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रेघ ताबंडी क्षितिजा वरती वेळ उन्हाच्या जाण्याची तेवत होती किनार ओली क्षणभर धूसर पाण्याची
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अश्या सांजवेळी क्षितिज झुकले खाली लाजली अवनी रंग उधळले आभाळी सानिका!!!
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Dilippwr
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| Saturday, April 15, 2006 - 3:35 am: |
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मंद उन्हाच कुठुन आला थेंब दिव्याच्या वातीवर ठेवुन गेला दिवस कोवळा मिणमिण अवघ्या रातीवर
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Giriraj
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| Saturday, April 15, 2006 - 6:06 am: |
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वाह! क्या बात है,दिलीप! उन्हाचा थेंब.. कुर्बान अगदी!
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केव्हाचा ठरवतोय तुझ एक चित्र काढायच त्याच्या समोर उभा राहुन आपलेच प्रतिबिंब न्याहाळायच.....
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aapalech pratibib ... va.. va...
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Dilippwr
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| Sunday, April 16, 2006 - 1:56 am: |
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शुक्रिय दोस्ता निलय वाह वाह वाह वाह
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Mrunmayi
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| Monday, April 17, 2006 - 3:47 am: |
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मझ्या चित्रात तुझ प्रतिबिंब पहाणं आता कशासाठी हवयं, खरतर आता तुझ्यातच माझ अस्तित्व एकरुपलय.. मित्रहो झाड वयात आलं..सहीच... सगळे जण खूप छान लिहीत आहात
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केवळ तुझ्या डोळ्यातलं प्रतिबिंब मला असण्याचं भान देतंय बाकी माझं मनही आता माझ्या अस्तित्वाला आव्हान देतय
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एकाच छत्रीत दोघं असताना सर आपल्याकडे कधी वळलीच नाही श्रावणातल्या पावसालाही तुझी-माझी अबोल प्रीत कधी कळलीच नाही
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