Chinnu
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| Thursday, April 06, 2006 - 12:50 pm: |
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छान मंडळी! दिलिप, स्वप्ना फारा दिसांनी तुम्हाला झुळुकेवर पाहुन आनंद झाला..
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Spuranik
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| Thursday, April 06, 2006 - 9:58 pm: |
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हो ग चिनू खूप दिवसांनी आले गुलमोहरावर. झुळूक छान बहरली आहे
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Spuranik
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| Thursday, April 06, 2006 - 10:24 pm: |
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चंद्र म्हणजे एक बहाणा सख्या तुला पाहण्याचा नूर माझा पाहणार्या दोन नयनी राहण्याचा
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Soultrip
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| Friday, April 07, 2006 - 1:30 am: |
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गुलगुलीत गोन्डस शब्द, झुळझुळीत प्लास्टिक उपमा कुरवाळतात सुबक ठेन्गणे दुख्ख पुण्या-मुम्बईचे प्रियतमा! Take it lightly guys
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, chan!! .. .. .. .. .. .. ..
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Dilippwr
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| Friday, April 07, 2006 - 3:10 am: |
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शान्त जळावर लाट उठावी गळावे पिकले पान खोल जळातुन अलगद यावे वरती हिरवे भान
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Dilippwr
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| Friday, April 07, 2006 - 3:18 am: |
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चिनु आभारी आहे मित्रा.ज़्हुळुक छानच
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Soultrip
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| Friday, April 07, 2006 - 4:45 am: |
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उन्ह केशरी हिरवे रान अथांग निळाई निसर्गाचं दान!
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Shyamli
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| Friday, April 07, 2006 - 4:49 am: |
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"आत्मा"आता कसं छान वाटतय वाचायला मस्त.... दीलिप छान.... चलने दो..
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Soultrip
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| Friday, April 07, 2006 - 4:55 am: |
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गुणवत्ता पुन्हा एकदा पायदळी तुडवली जाणार आहे, इलेक्शन वर डोळा ठेवत मंडलचं भुत पुन्हा एकदा सवार आहे!
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जळत्या हृदयासही एक आच हवी असते गुलाबी गोन्डस स्वप्नान्ची एक साथ हवी असते
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Soultrip
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| Friday, April 07, 2006 - 6:03 am: |
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Thanks Lopamudraa & Shyamli!
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Puru
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| Friday, April 07, 2006 - 6:20 am: |
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फोटोतला मी खरा कि, आरश्यातला? पण नकोच सांगुस, मी खरा..तुझ्या डोळ्यातला! ..तुझ्या स्पंदनातला!!
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मी मेले तेव्हा, त्यांनी मला पुरलं नाही; आणि मी जळणार तरी कशी? जळण्यासारखं काही उरलंच नाही. रश्मिरथी........
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Sushya
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| Friday, April 07, 2006 - 6:47 am: |
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आयुष्यभर माझी आठवण कधी तिला आली नाही माझ्यानंतर दोन अश्रू ढाळेल हे ही काही कमी नाही
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Puru
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| Friday, April 07, 2006 - 7:21 am: |
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ढाळलेले दोन अश्रू वेड्या तुझ्या साठी नव्ह्ते इफ़ेक्ट साठी, टीव्ही च्यानेलच्या क्यामेर्यासाठी होते!
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व्यवहारी हृदये दगडीच बनतात क्वचित विसरुन व्यवहार दगडही पाझरतात
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आयुष्यभर ओळख लपऊन ठेवली जाता जाता एक नजर टाकली.. बघाव म्हटलं शेवटच्या नजरेत कुठे ओळख पाझरते का...!!!
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कधी नजर चोरली, कधी नजर लपवली, आणि नजरेला नजर देतांना पाहुन मला... ख्ट्याळ हसु आवरले नाही तुला!!!
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असा बघतोस आर्त व्याकुळ.. कसं सांगु सोपं नाही हृदयाची हाक ऐकुन न ऐकल्यासारखे करणे.. व्यवहारी जगाचे होऊन जगणे नजरेचे रोखठोक सवाल.. समजत असुन दुर्लक्षीत करणे...
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Shyamli
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| Sunday, April 09, 2006 - 2:35 am: |
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नको येऊस.... म्हणते आणि तरीही वाट बघते काय हे...... जे सतत मला छळते..... श्यामली!!!
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Shyamli
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| Sunday, April 09, 2006 - 2:42 am: |
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अग जग व्यवहारी तसेच वागावे लागते मनावर आलेले ओरखडे पुसुन जगावेच लागते श्यामली!!!
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Dilippwr
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| Sunday, April 09, 2006 - 4:26 am: |
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रान हिरवे होताना पळुन जावे वाटे रानात रेशा होवुन लपुन जावे हिरव्यागार पानात
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mastch1.. dilip.. .. .. 
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लग्नांचा हा कसा आगळा खेळ पाहुन पत्रिका, लक्ष्मीला लक्ष्मी वरते लावुन बोली हा स्वयंवराला बसतो राम अन सिता बिचारी धनुष्य घेउन फिरते!!
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