देवदत्ता, जास्वन्द असेच काव्यात भिजवत ठेवा............................................... !!!
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Shyamli
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| Thursday, March 02, 2006 - 8:27 am: |
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देवा, जास्वंदा सुटलायत एकदम..... चालु दे.... वैशालि छान ग!
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Jaaaswand
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| Thursday, March 02, 2006 - 9:06 am: |
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मस्त रे देवा... प्रत्येक आमच्या भेटीत असं भव्य-दिव्य होऊन जातं नि:शब्द तिच्या भावनांचं महाकाव्य दाटून येतं जास्वन्द...
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जास्वंद, श्यामली, वैशाली, निल्या, मिनू, सुधीर,मयुर.. सुंदर.. क्षिप्रा खूप दिवसांनी?? रडत होते पावसात त्याला नाही दिसले पापण्यांतले पाणी पावसानेच पुसले
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पापण्यातलं पाणी पुसण्यातही पावसाचा कावा आहे माझंच दु:ख सगळ्यात मोठे असा त्याचा दावा आहे
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माझ्या डोळ्यात पाणी तू मात्र कोरडा राहिलास पाऊससुध्दा हळहळला तू मात्र दुरूनच पाहिलास
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Jo_s
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| Friday, March 03, 2006 - 1:41 am: |
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माझच दु:ख सगळ्यात मोठं म्हणण्यातही असतं एक सुख त्या सुखालाही तडा जाता दु:ख बोचतं तेच खुप सुधीर
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Shyamli
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| Friday, March 03, 2006 - 1:49 am: |
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सगळे छान लिहिताय.....पण विशय बदला रे......
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पाणी गेले वाहून मेघ झाले हलके निरभ्र मनोनभी इंद्रधनु झळके
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Sparsh
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| Friday, March 03, 2006 - 2:03 am: |
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नमस्कार! आठवणींचे मेघ पाऊस होऊन बरसताना नकळत प्रेमाची पालवी फुटते पाणी मनात मुरताना....
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Shyamli
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| Friday, March 03, 2006 - 2:28 am: |
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ये हुई ना बात! दीप,विभा छान!!!! नको वाटे आज दु:ख नी अश्रु नाचु या म्हणतय मन पाखरु!!! श्यामली!!!
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Sarang23
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| Friday, March 03, 2006 - 2:59 am: |
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मनपाखरू छान! सगळेच छान लिहिताय की!
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आज माझ्या परसात बरचं काही बरसून गेलं आठवणी वेचता वेचता मग घर माझं हरवून गेलं जास्वन्द...
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मस्त लिहीलेय सगळ्यांनी. देवदत्त कावा आवडला. मयूर अगदी पटलं. कठीण कठीण कठीण किती... दीप दोन्ही चारोळ्या एकदम सही. पण दोन्ही उखाण्याच्या चालीत बरोबर बसतायत. का रे बाबा
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Shyamli
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| Friday, March 03, 2006 - 3:10 am: |
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आठवणी वेचाव्यात मखमलीत ठेवाव्यात कधीतरी एकटच असताना हळुच ऊघडुन बघाव्यात! श्यामली!!!
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वाटेत स्मृतींच्या हरवलेलं आज बरंच काही सापडलं सुखद क्षणांच्या वळणांवर मन स्वच्छंद बागडलं सन्मी चल.. आता तुझं राज्य...
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Shyamli
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| Friday, March 03, 2006 - 3:22 am: |
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म्हणजे आम्ही बाहेर जायच का? बर बर.... चालु द्या हो.... 
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तुम्ही आळीपाळीने खेळायचं.. चला बाहेर या... डब्बा ऐसपैस, आबाधाबी विटीदांडू अन लंगोरी बालपणीच्या खेळांमध्ये मन भोवरा का भिरभिरी?
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सुटली आंधळी कोशिंबीर अन संपली ती भातुकली पण फ़ुललेली फ़ुलं आता कळी व्हायला आसुसली जास्वन्द...
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>>>> मन भोवरा का भिरभिरी? भिरभिरी ऐवजी भिन्गरी जास्त शोभुन दिसल अस्त की रे दिपूभाव!
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Moodi
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| Friday, March 03, 2006 - 4:07 am: |
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कारण दर शनीवारी भोवरा अन भिंगरी गरगरत असतात गडावर. बाकी प्रसन्न झुळुका येतायत हल्ली 
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Jo_s
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| Friday, March 03, 2006 - 4:09 am: |
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खेळ थांबवा संध्याकाळ झाली म्हणा परवाचा देवा जवळी
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Shyamli
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| Friday, March 03, 2006 - 4:10 am: |
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वीषामृत आणि भातुकली खेळती माझ्या सावल्या जीव विसावतोय अन आठवणी गाभुळल्या श्यामली!!!
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एक प्रश्न विचारु का, नेहमिसारखा? किनाराही बुडतो का ग, जहाजासारखा?
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Shyamli
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| Friday, March 03, 2006 - 5:08 am: |
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किनार्याला बुडुन कस चालेल? जहाजाचा नीरोप मग कुणाला मीळेल? श्यामली!!
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