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Psg
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| Tuesday, February 07, 2006 - 4:11 am: |
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सगळे कसे आपापल्या बायकांना घाबरून आहेत! :-P प्रसाद, ही कविता प्रत्यक्श ऐकायला जास्त मजा येते!
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Athak
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| Tuesday, February 07, 2006 - 4:24 am: |
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मिल्या , असा जाहीर कबुलीजबाब अन वर असे शिक्कामोर्तब आपण नसते सहन केले अंदरकी बात खरी रे बाबा
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Moodi
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| Tuesday, February 07, 2006 - 4:37 am: |
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मिल्या, प्रसाद जियो. सुपर्ब वर्णन. पण असेही असेल ना की " कशी केलीस माझी दैना, मला तुझ्या बिगर करमेना... " 
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अथक, ईतका घाबरतोस? मिल्या, प्रसाद जबरी. खर खोट देव जाणे पण लिहिलय छान
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मिल्या,जबर्या रे भो.. कविता लिहायला कधी चालु करतोयस आता ?
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Meenu
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| Tuesday, February 07, 2006 - 5:09 am: |
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काही काही पोस्टींग नीट दीसत नाहीत नुसते चौकोन दिसतात कशामुळे कोणी सांगेल का?
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Milindaa
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| Tuesday, February 07, 2006 - 7:15 am: |
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खि खि खि... मजा आली
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Giriraj
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| Tuesday, February 07, 2006 - 10:50 am: |
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प्रसाद,मला तुझ्या या कळा कळों आल्या बर आता! माहीतच नव्हत इथे काही आल्याचे!
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Pama
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| Tuesday, February 07, 2006 - 11:07 am: |
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मिल्या.. ही ही ही ही..
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Nakul
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| Tuesday, February 07, 2006 - 8:15 pm: |
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मिल्या प्रसाद लय भारी
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Sarya
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| Tuesday, February 07, 2006 - 10:31 pm: |
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मिल्या, प्रसाद मस्तच रे
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Milya
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| Tuesday, February 07, 2006 - 11:51 pm: |
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दाद दिल्याबद्दल सर्वांना मन:पूर्वक धन्यवाद
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Ninavi
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| Wednesday, February 08, 2006 - 8:14 am: |
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मिल्या, प्रसाद, मजा आली वाचून. सहीच! ( जाता जाता... यांच्या बायकांना भेटायला पाहिजे.. हे कसं जमवतात हे कळायलाच हवं!!) 
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गुरुदेव मिल्या, जबरी रे प्रसाद, ही कविता तुझ्या तोंडून ऐकायला तर खूपच मजा येते.
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Paragkan
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| Wednesday, February 08, 2006 - 1:52 pm: |
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जबरी रे पब्लिक!
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मिल्या, पुन्हा सुटला आहेस. खल्लास !
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Manuswini
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| Thursday, February 09, 2006 - 12:35 am: |
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पाकिस्तान मागे पडेल एवढी दहशत केलेली दिसतेय " ह्यांच्या " बायकांनी गुपित कळेल तर बरे होईल
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Pendhya
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| Thursday, February 09, 2006 - 8:06 pm: |
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clipart{समंजसाचा Tone }...... अरे! शेवटी मनुष्य, हा अनुभवातूनच शिकतो. नाही का? मस्त रे!
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Anilbhai
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| Friday, February 10, 2006 - 1:53 pm: |
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मुळ कविता - तुझ्यासवे.. तुझ्यासवे... लोचनांत जी उभी, नविच ढापणे रडायचे, हसायचे अता तुझ्यासवे दिसताती मला कुठे हिशोब येथले पदोपदी बघायचे अता तुझ्यासवे रोज पुसणे कठीण भासे मजशी जगावरी फ़िरायचे अता तुझ्यासवे कानावरी घट्ट नाकी तोल धरुनी वदन हे सजायचे अता तुझ्यासवे वापरायचे असे कुठे न सांडता जपुनची पळायचे अता तुझ्यासवे...
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Moodi
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| Friday, February 10, 2006 - 2:37 pm: |
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अनिलभाई महान आहात हो!! 
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Shivam
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| Saturday, February 11, 2006 - 12:58 am: |
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मिल्या, प्रसाद आपल्याला आवडलं बॉ! अनिलभाई, विडंबन मस्तच!
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Milya
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| Saturday, February 11, 2006 - 1:41 am: |
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निनावीची माफ़ी मागुन मंजूर होते ह्या नितांतसुंदर गझलेचे हे विडंबन हाव ती नयनांमधूनी दावणे मंजूर होते टाकणे जमलेच नाही, ओकणे मंजूर होते टेबलावर सांडलेले थेंब ते माझ्या ' सखी ' चे लाडके तरिही अखेरी, त्याजणे मंजूर होते भासली प्रतिमा तिची तो बेवड्या आभास होता ग्लास तो अपुल्याच हाती फ़ोडणे मंजूर होते संपली चषकातली जेव्हा सुरा ती शेवटाची झिंगले सगळेच साथी, सोडणे मंजूर होते सोडुनी वहिवाट ज्यांनी पाजली पेयं निराळी पाय त्या मदिरालयाला लागणे मंजूर होते
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Jayavi
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| Saturday, February 11, 2006 - 1:53 am: |
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क्या बात है मिल्या..... एकदम सही !!
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Gandhar
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| Saturday, February 11, 2006 - 1:53 am: |
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मिल्या, पक्का " बुधवारकरी " झालास रे भो!!
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Kandapohe
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| Saturday, February 11, 2006 - 1:54 am: |
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मिल्या सहीच!! कधी सुचले? बुधवारीच असणार. भाई मस्त!!
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भाई,सहीच मिल्या,खल्लास रे भो
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Psg
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| Saturday, February 11, 2006 - 4:52 am: |
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मिल्या, हुकमी topic असल्यामुळे जमले आहेच as usual .. काहीतरी वेगळे येऊदे आता.. अनिलभाई
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