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Devdattag
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| Tuesday, January 03, 2006 - 7:37 am: |
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तो चंद्रही तारकांना हलकेच साद देई प्रतिबिंबही स्वत:चे फ़िरुन सागरात पाही माझ्या चांदव्याची दुरून अलवार शीळ येई मग भरतीस भावनांच्या मी ओंजळीत वाही ह्या शिडास किनार्याची धुंद आठवण येई तो दिपही प्रकाशाचा नि:शब्द भार वाही आज जोगियात गाते फ़िरुन मी रुबाई नावेस दूर माझ्या आज किनाराच नाही
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सारंग अतिशय सुंदर आनि देव दत्त तितकेच सुंदर शब्धी अनोखा मिलाप
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Sarang23
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| Tuesday, January 03, 2006 - 10:36 pm: |
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जबरी रे देवदत्त!!!
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Devdattag
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| Wednesday, January 04, 2006 - 4:02 am: |
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धन्यवाद रे सारंग आणि निल्या
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Moodi
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| Wednesday, January 04, 2006 - 4:13 am: |
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अहाहा! निशब्द तरीही बोलक्या चित्रासोबत वातावरण सजीव करणारी अप्रतिम कविता. 
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ह्म्म्म्म...... कविता वाचुन मला त्या नावेत बसावस वाटतय.... खुप छान आहे फ़क्त एकच रुबाई मह्नजे?
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Menikhil
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| Wednesday, January 04, 2006 - 5:21 pm: |
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हे चित्र पाहुन मन्गेश पाडगावकरान्ची ही कविता आठवली.... सन्थ निळे पाणी, वर शुक्राचा तारा कुरळ्या लहरी मधुनी शीळ घालितो वारा....
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Chinnu
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| Wednesday, January 04, 2006 - 5:51 pm: |
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.. देवदत्ता, छानच रे!
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देवदत्त, छानच रे ! माझाही एक प्रयत्न... चंद्र चंद्र लाट अन चंद्र किनारा चंद्र शीड अन चंद्रच वारा चांदणधाग्यामधे गुंफला मंद शांतसा चंद्र फुलोरा सचैल न्हाते रात्र सागरी अन चंद्राचा खडा पहारा ही हृदयावर खूण कशाची ? कुणी डागला चंद्रनिखारा ? चमचम करती टपटपताना चंद्रपावसा मधल्या गारा अनंततेचा प्रवास आणिक चंद्रच नौका वल्हविणारा ~ प्रसाद
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Chinnu
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| Thursday, January 05, 2006 - 12:22 am: |
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प्रसाद अगदि अगदि! तुझ नाव मला प्रसादचंद्र ठेवावेसे वाटले ते उगाच नै कै! चंद्रनिखारा, अनंततेचा प्रवास.. मस्तच..
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Devdattag
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| Thursday, January 05, 2006 - 12:34 am: |
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धन्यवाद दोस्तांनो.. मुग्धा.. रुबाई हा एक उर्दू हिंदी काव्यछंद प्रकार आहे.. मराठीतल्या चारोळ्यांप्रमाणे.. हिंदी मध्ये चार ओळिंचे मुक्तकही असतात..पण बर्याचदा ते रुबाई छंदात बसत नाहीत प्रसाद सही रे
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Sarang23
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| Thursday, January 05, 2006 - 1:46 am: |
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केवळ अप्रतीम...!!! गझल म्हणणार नाही कारण काफ़िया भंगला आहे... थोडा शब्दच्छल वाटतो पण एक मनस्वी आनंद देते ही कविता... छान रे प्रसाद!!!
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सारंग, चित्र फारच आवडलं म्हणून लिहिलं जमलं तसं.... चिन्नू प्रसादचंद्र
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Shyamli
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| Thursday, January 05, 2006 - 6:34 am: |
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प्रसाद देवदत्त मानना पडेगा भाई, चन्द्र आणि चान्दणे नोकेवीण झुलणे सुचलेच मज आज अवचित आज गाणे प्रसाद देवदत्त, जास्वन्द ह्यान्ना नमस्कार करुन चु.भु.माफ असावि
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Chinnu
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| Thursday, January 05, 2006 - 9:57 am: |
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वा वा श्यामली, नौकेवीण झुलणे.. क्या बात है! चार ओळितही बाजी नक्किच मारलीस. लिहित जा ग.
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Chinnu
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| Thursday, January 05, 2006 - 10:01 am: |
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न्हाते रात्र सागरि, चंद्राचा पहारा.. चंद्रपावुस! प्रसाद, फ़ार सुंदर अहेत कल्पना.. मी किमान १० वेळा वाचली असेल कविता एव्हाना. पण दरवेळी प्रत्त्येक उपमा छान वाटते!
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प्रसाद सुन्दरच डोळे थकत नाही वाचुन.... आणि मनही भरत नाही
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Paragkan
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| Thursday, January 05, 2006 - 10:19 am: |
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आय हाय PM ... as usual... झकास!
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Pama
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| Thursday, January 05, 2006 - 11:20 am: |
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देवदत्त, प्रसाद.. एकदम सही!!
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Giriraj
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| Friday, January 06, 2006 - 12:09 am: |
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प्रसाऽऽद! अहाहा! भारी रे!
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Pendhya
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| Friday, January 06, 2006 - 12:28 am: |
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देवदत्त, प्रसाद, श्यामली, मस्त जमल्यात कविता. अगदी चित्राशी अनुरूप.
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Pendhya
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| Friday, January 06, 2006 - 12:29 am: |
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नसेन मी कुणी कवी, नसेल जमत मला काव्य जरी, पण अशा ह्या शितल चंद्र किरणांमधे, नौकाविहाराची कामना करतो मी तरी, मन सांगतय मला, नकोस वेळ घालवू, घे हातात हात माझा, चल आज चंद्राच्या पलीकडे जाऊ.
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Shyamli
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| Friday, January 06, 2006 - 12:40 am: |
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व्वा पेन्द्या चन्द्राच्या पलिकडे क्या बात है
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Pama
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| Friday, January 06, 2006 - 12:50 am: |
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चंद्र उश्यला घेऊन निजता, स्वर्गसुखाचा भास घडे शिडात शिरल्या वार्यालाही, चांदण्यांची भूल पडे. पाण्यावरती थरथरणार्या, लहरींचे हे बोल गडे, 'आज निशेच्या यौवनाला, चंद्रावरती प्रीत जडे.' निश्चल त्याच्या पटलावरती, कसले रे गोंदण चढे? व्यापुन राही जीव असा की, तो मागे अन तोच पुढे.
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Milya
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| Friday, January 06, 2006 - 1:04 am: |
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वा देव,प्रसाद, पमा मस्तच
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Chinnu
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| Friday, January 06, 2006 - 8:32 am: |
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पेन्ध्या रे! सही लिहिलस अगदी.. तुझा positive attitude उठुन दिसतो कवितेत. पलिकडल्या जगात काय पाहीले ते अम्हालापण मान वळवुन सांगत रहा हो! पमा, निशेला चंद्रच देवुन टाकलास! झकास.. मला शेवटच्या ओळी निराकार ईश्वराची आठवण देत्या झाल्यात. खुपच छान!
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Menikhil
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| Friday, January 06, 2006 - 12:40 pm: |
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पामा अप्रतीमच. बालकविन्च्या कवितान्सारखी शब्दरचना आवडली
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Menikhil
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| Friday, January 06, 2006 - 12:47 pm: |
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हे चित्र पाहुन मझी एक कविता रीपोस्ट करतो आहे. इथे ती जास्त चान्गली वाटेल. ही एक काहिच्याकाही कविता आहे आमच यान एकदा चन्द्रावर गेल होत चन्द्रावर जाउन तिथली पाखर पहात होत एकाच रस्त्यावर चालुन चौपदरी रस्ते दिसत होते आणि अडथळ्याना धडकल्यावरच ब्रेक मारत होत वरून रामाला वाकोल्या दाखवात होत 'बघ मी आलो चन्द्रावर' असे म्हणुन त्याला पाण्यात पहायला लावत होत आणि पृथ्वी वरच्या पोरी पहातिल इतक्या शिट्ट्या मारत होत रस्ता कुठ्ला घर कुठल त्याला माहित नव्हत खर म्हणजे त्यातला फरकच ते ओळखत नव्हत तेव्हड्यात दुरून कुठून तरी आवाज आला 'चला आता घरी खुप ऊशीर झाला' क्शणात समोरच्या अप्सरा अद्रुश्य झाल्या वज्र लपवुन मागे, इन्द्रही पळाला महामायेच ते रुप पाहील आणि आमच यान थाडकन जमिनीवर आल
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Chinnu
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| Friday, January 06, 2006 - 7:23 pm: |
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निखील! खी खी खी!!
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Sarang23
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| Friday, January 06, 2006 - 10:24 pm: |
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पेन्द्या, पमा, श्यामली आणि निखील छान कविता. श्यामली एक सल्ला... आज हा शब्द दोनदा आला आहे. अस फक्त गरज असल्यावरच करत जा. छान लिहीतेस लिहीण सोडु नकोस.
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Chanakya
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| Sunday, January 08, 2006 - 11:55 pm: |
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माझाही एक प्रयत्न. सोबत क्षितिजावरच्या चंद्रा पर्यन्त, सोबत माझ्या चालशील का? डळमळणारी जीवननौका, भवसागरी ह्या तारशील का? शांत सागर असला तरीही, चित्ती वादळे लपली आहेत खोल मनाच्या गर्तेमध्ये, दुःखे कितीतरी जपली आहेत अवखळ वारा बनुनी हलकेच, सुखकर फ़ुंकर घालशील का? चंद्र शीतल असला तरीही, उल्कापात हा घडला आहे चमचमणार्या लहरींमागे, कातर अंधार दडला आहे तारका चंचल बनुनी मजवर, चांदण शिंपण करशील का? सोबत माझ्या तू असल्यावर, कशालाच मी बधणार नाही असूदे कितीही दूर किनारा, तरीही शरीर थकणार नाही जीवनातल्या अंतिम पर्वी, मजला समरूप करशील का?
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Psg
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| Monday, January 09, 2006 - 1:05 am: |
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वा! chandra varchya kavita mhanje romanticism la parvanich!!उत्तम चित्र आणि अत्युत्तम कविता! ajun marathi farsa changla lihta yet nahi mala, chukbhul maf kara. devnagrit, esp. anuswar, pay modne vagaire kase lihave ya baddal guidance kontya bb var milel?
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sahI ica~ Aaho. p`saad saatvaoLa kuina-saat ro baabaa tulaa. iTpUr ekaMtÊ punavaocaI ratÊ ekca hÜDI caalao naIrva tL\yaat. sajaNaacyaa DÜ@yaat iXarlaMyaa yaaD. valhvaIt jaa} mhNaM caaMdaplyaaD.
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Sarang23
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| Monday, January 09, 2006 - 10:26 pm: |
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अरे क्या बात है संघमित्रा!!!
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